उ॒भयं॑ ते॒ न क्षी॑यते वस॒व्यं॑ दि॒वेदि॑वे॒ जाय॑मानस्य दस्म। कृ॒धि क्षु॒मन्तं॑ जरि॒तार॑मग्ने कृ॒धि पतिं॑ स्वप॒त्यस्य॑ रा॒यः॥
ubhayaṁ te na kṣīyate vasavyaṁ dive-dive jāyamānasya dasma | kṛdhi kṣumantaṁ jaritāram agne kṛdhi patiṁ svapatyasya rāyaḥ ||
उ॒भय॑म्। ते॒। न। क्षी॒य॒ते॒। व॒स॒व्य॑म्। दि॒वेऽदि॑वे॒। जाय॑मानस्य। द॒स्म॒। कृ॒धि। क्षु॒ऽमन्त॑म्। जरि॒तार॑म्। अ॒ग्ने॒। कृ॒धि। पति॑म्। सु॒ऽअ॒प॒त्यस्य॑। रा॒यः॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
स्वामी दयानन्द सरस्वती
पुनस्तमेव विषयमाह।
हे दस्माग्ने दिवेदिवे जायमानस्य यस्य ते उभयं वसव्यं न क्षीयते स त्वं जरितारं क्षुमन्तं कृधि स्वपत्यस्य रायः पतिं कृधि ॥५॥