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उ॒भयं॑ ते॒ न क्षी॑यते वस॒व्यं॑ दि॒वेदि॑वे॒ जाय॑मानस्य दस्म। कृ॒धि क्षु॒मन्तं॑ जरि॒तार॑मग्ने कृ॒धि पतिं॑ स्वप॒त्यस्य॑ रा॒यः॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ubhayaṁ te na kṣīyate vasavyaṁ dive-dive jāyamānasya dasma | kṛdhi kṣumantaṁ jaritāram agne kṛdhi patiṁ svapatyasya rāyaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

उ॒भय॑म्। ते॒। न। क्षी॒य॒ते॒। व॒स॒व्य॑म्। दि॒वेऽदि॑वे॒। जाय॑मानस्य। द॒स्म॒। कृ॒धि। क्षु॒ऽमन्त॑म्। जरि॒तार॑म्। अ॒ग्ने॒। कृ॒धि। पति॑म्। सु॒ऽअ॒प॒त्यस्य॑। रा॒यः॥

ऋग्वेद » मण्डल:2» सूक्त:9» मन्त्र:5 | अष्टक:2» अध्याय:6» वर्ग:1» मन्त्र:5 | मण्डल:2» अनुवाक:1» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (दस्म) पर-दुःख-भञ्जन करनेवाले और (अग्ने) अग्नि के समान बढ़नेवाले विद्वान् ! (दिवेदिवे) प्रतिदिन (जायमानस्य) सिद्ध हुए जिन (ते) आपका (उभयम्) दान और यज्ञ करना दोनों (वसव्यम्) धनों में प्रसिद्ध हुए काम (न) नहीं (क्षीयते) नष्ट होते सो आप (जरितारम्) विद्यादि गुण की प्रशंसा करनेवाले (क्षुमन्तम्) बहुत अन्नवाले को (कृधि) उत्पन्न करो और (स्वपत्यस्य) जिससे उत्तम सन्तान होते उस (रायः) देने योग्य धन को (पतिम्) पालने रखनेवाले को (कृधि) कीजिये ॥५॥
भावार्थभाषाः - उसी के कुल से धन नाश नहीं होता, जो और सुपात्रों के लिये संसार का उपकार करने को देता है ॥५॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे दस्माग्ने दिवेदिवे जायमानस्य यस्य ते उभयं वसव्यं न क्षीयते स त्वं जरितारं क्षुमन्तं कृधि स्वपत्यस्य रायः पतिं कृधि ॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (उभयम्) दानं यजनं च (ते) तव (न) (क्षीयते) नश्यति (वसव्यम्) वसुषु भवम् (दिवेदिवे) प्रतिदिनम् (जायमानस्य) (दस्म) परदुःखभञ्जक (कृधि) कुरु (क्षुमन्तम्) बह्वन्नयुक्तम् (जरितारम्) विद्यागुणप्रशंसकम् (अग्ने) अग्निवद्वर्धमान (कृधि) (पतिम्) (स्वपत्यस्य) शोभनान्यपत्यानि यस्मात्तस्य (रायः) दातुं योग्यस्य धनस्य ॥५॥
भावार्थभाषाः - तस्यैव कुलाद्धननाशो न भवति योऽन्येभ्यः सुपात्रेभ्यो जगदुपकाराय प्रयच्छति ॥५॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे सुपात्रांना जगावर उपकार करण्यासाठी धन देतात अशा कुळाचा नाश होत नाही. ॥ ५ ॥