नि होता॑ होतृ॒षद॑ने॒ विदा॑नस्त्वे॒षो दी॑दि॒वाँ अ॑सदत्सु॒दक्षः॑। अद॑ब्धव्रतप्रमति॒र्वसि॑ष्ठः सहस्रंभ॒रः शुचि॑जिह्वो अ॒ग्निः॥
ni hotā hotṛṣadane vidānas tveṣo dīdivām̐ asadat sudakṣaḥ | adabdhavratapramatir vasiṣṭhaḥ sahasrambharaḥ śucijihvo agniḥ ||
नि। होता॑। हो॒तृ॒ऽसद॑ने। विदा॑नः। त्वे॒षः। दी॒दि॒ऽवान्। अ॒स॒द॒त्। सु॒ऽदक्षः॑। अद॑ब्धऽव्रतप्रमतिः। वसि॑ष्ठः। स॒ह॒स्र॒म्ऽभ॒रः। शुचि॑ऽजिह्वः। अ॒ग्निः॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब द्वितीय मण्डल में छठे अध्याय का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में अग्निविषयक विद्वानों के कर्मों को कहते हैं।
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अथाग्निविषयकानि विद्वत्कर्माण्याह।
विद्वद्भिर्यो होतृषदने होता विदानस्त्वेषो दीदिवान् सुदक्षोऽदब्धव्रतप्रमतिर्वसिष्ठः शुचिजिह्वः सहस्रम्भरोऽग्निर्न्यसदत्स सदा कार्येषु सम्प्रयोक्तव्यः ॥१॥
माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)या सूक्तात अग्नीप्रमाणे विद्वानाच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती आहे, हे जाणले पाहिजे.