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तं त्वा॑ गी॒र्भिर्गिर्व॑णसं द्रविण॒स्युं द्र॑विणोदः। स॒प॒र्येम॑ सप॒र्यवः॑॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

taṁ tvā gīrbhir girvaṇasaṁ draviṇasyuṁ draviṇodaḥ | saparyema saparyavaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

तम्। त्वा॒। गीः॒ऽभिः। गिर्व॑णसम्। द्र॒वि॒ण॒स्युम्। द्र॒वि॒णः॒ऽदः॒। स॒प॒र्येम॑। स॒प॒र्यवः॑॥

ऋग्वेद » मण्डल:2» सूक्त:6» मन्त्र:3 | अष्टक:2» अध्याय:5» वर्ग:27» मन्त्र:3 | मण्डल:2» अनुवाक:1» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (द्रविणोदाः) धन को देनेवाले विद्वान् जन ! अग्नि के समान वर्त्तमान (द्रविणस्युम्) अपने को धन की इच्छा करनेवाले (गिर्वणसम्) विद्या की वाणी को सेवते हुए (तम्) उन (त्वा) आपको (सपर्यवः) अपने को सेवने की इच्छा करनेवाले जन (गीर्भिः) सुन्दर शिक्षित वाणियों से सेवते हैं, वैसे हम लोग (सपर्येम) सेवन करें ॥३॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो गुण, कर्म, स्वभाव से अग्नि को विशेष जानकर कार्यसिद्धि के लिये उसका अच्छे प्रकार प्रयोग करते हैं, वे श्रीमान् होते हैं ॥३॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे द्रविणोदो यथाऽग्निरिव वर्त्तमानं द्रविणस्युं गिर्वणसं तन्त्वा सपर्यवो गीर्भिस्सेवन्ते तथा वयं सपर्येम ॥३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (तम्) (त्वा) (गीर्भिः) सुशिक्षिताभिर्वाग्भिः (गिर्वणसम्) विद्यावाक् सेवमानम् (द्रविणस्युम्) आत्मनो द्रविणमिच्छुम् (द्रविणोदः) यो द्रविणो ददाति तत्सम्बुद्धौ (सपर्येम) सेवेमहि (सपर्यवः) आत्मनः सपर्यामिच्छवः ॥३॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये गुणकर्मस्वभावतोऽग्निं विज्ञाय कार्यसिद्धये संप्रयुञ्जते ते श्रीमन्तो जायन्ते ॥३॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे अग्नीला गुण, कर्म स्वभावाने विशेष रीतीने जाणून कार्यसिद्धीसाठी त्याचा चांगल्या प्रकारे प्रयोग करतात ते श्रीमंत होतात. ॥ ३ ॥