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न यत्परो॒ नान्त॑र आद॒धर्ष॑द्वृषण्वसू। दुः॒शंसो॒ मर्त्यो॑ रि॒पुः॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

na yat paro nāntara ādadharṣad vṛṣaṇvasū | duḥśaṁso martyo ripuḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

न। यत्। परः॑। न। अन्त॑रः। आ॒ऽद॒धर्ष॑त्। वृ॒ष॒ण्व॒सू॒ इति॑ वृषण्ऽवसू। दुः॒ऽशंसः॑। मर्त्यः॑। रि॒पुः॥

ऋग्वेद » मण्डल:2» सूक्त:41» मन्त्र:8 | अष्टक:2» अध्याय:8» वर्ग:8» मन्त्र:3 | मण्डल:2» अनुवाक:4» मन्त्र:8


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! (परः) उत्कृष्ट (दुःशंसः) जिसकी दुष्ट स्तुति विद्यमान वह (मर्त्यः) मरणधर्मा मनुष्य (रिपुः) शत्रु (यत्) जो (वृषण्वसू) वर्षानेवालों को बसाते हैं उनको (न,आदधर्षत्) न लचावे वा (अन्तरः) सामान्य दुष्ट स्तुतिवाला मरणधर्मा जिनको (न) न लचावे उनको कार्यों में नियुक्त करो ॥८॥
भावार्थभाषाः - इस जगत् में वायु और अग्नि को कोई भी लचाय नहीं सकता और न इनका कोई शत्रु के समान नाश करनेवाला है, उस प्रकार से नहीं पराजित होने योग्य मनुष्यों को होना चाहिये ॥८॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे मनुष्याः परो दुःशंसो मर्त्यो रिपुर्यद्यौ वृषण्वसू नादधर्षदन्तरो दुःशंसो मर्त्यो रिपुर्नादधर्षत्तौ कार्येषु नियुङ्ग्ध्वम् ॥८॥

पदार्थान्वयभाषाः - (न) (यत्) यौ (परः) (न) (अन्तरः) मध्यस्थः (आदधर्षत्) प्रगल्भो भवेत् (वृषण्वसू) वृष्णं वर्षयित्रीणां वासयितारौ (दुःशंसः) दुष्टः शंसस्तुतिर्यस्य सः (मर्त्यः) मरणधर्मा मनुष्यः (रिपुः) शत्रुः ॥८॥
भावार्थभाषाः - अत्र जगति वायुं वह्निं च कोऽपि धर्षयितुं न शक्नोति नैवाऽनया कश्चिच्छत्रुवन्नाशकोऽस्ति तथाऽजेयैर्मनुष्यैर्भवितव्यम् ॥८॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या जगात वायू व अग्नीला कोणी पराभूत करू शकत नाही त्यांचा शत्रूप्रमाणे कोणी नाश करू शकत नाही. याप्रमाणे माणसांनीही पराभूत होता कामा नये. ॥ ८ ॥