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आ यन्मे॒ अभ्वं॑ व॒नदः॒ पन॑न्तो॒शिग्भ्यो॒ नामि॑मीत॒ वर्ण॑म्। स चि॒त्रेण॑ चिकिते॒ रंसु॑ भा॒सा जु॑जु॒र्वाँ यो मुहु॒रा युवा॒ भूत्॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ā yan me abhvaṁ vanadaḥ panantośigbhyo nāmimīta varṇam | sa citreṇa cikite raṁsu bhāsā jujurvām̐ yo muhur ā yuvā bhūt ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ। यत्। मे॒। अभ्व॑म्। व॒नदः॑। पन॑न्त। उ॒शिक्ऽभ्यः॑। न। अ॒मि॒मी॒त॒। वर्ण॑म्। सः। चि॒त्रेण॑। चि॒कि॒ते॒। रम्ऽसु॑। भा॒सा। जु॒जु॒र्वान्। यः। मुहुः॑। आ। युवा॑। भूत्॥

ऋग्वेद » मण्डल:2» सूक्त:4» मन्त्र:5 | अष्टक:2» अध्याय:5» वर्ग:24» मन्त्र:5 | मण्डल:2» अनुवाक:1» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - (यत्) जो (चित्रेण) अद्भुत (भासा) प्रकाश से (मे) मेरे (वर्णम्) रूप का (चिकिते) विज्ञान कराता (सः) वह (रंसु) रमणीय पदार्थ को (अभ्वम्) जल के समान (आ) अच्छे प्रकार जतलाता है। (यः) जो (जुजुर्वान्) जीर्ण हुआ भी (मुहुः) बार-बार (युवा) तरुण के समान (आभूत्) अच्छे प्रकार होता है जिसकी (उशिग्भ्यः) कामना करते हुए जनों को (वनदः) प्रशंसा करनेवाले विद्वान् (पनन्त) प्रशंसारूप स्तुति हैं वह (न) नहीं (अमिमीत) मान करता अर्थात् अपनी तीक्ष्णता के कारण सबको जलाता सब मनुष्य उसका अच्छे प्रकार प्रयोग करें ॥५॥
भावार्थभाषाः - जो अग्नि समस्त अविद्यमान को विद्यमान के समान करता और जैसे जीव वृद्धपन और मरण को प्राप्त होकर फिर उत्पन्न हुआ ज्वान होता है, वैसे जो बार-बार वृद्धि और क्षय को प्राप्त होता है, वह अग्नि व्यवहारों में युक्त करने योग्य है ॥५॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

यश्चित्रेण भासा मे वर्णं चिकिते स रंस्वभ्वमा चिकिते यो जुजुर्वान्मुहुर्यवेवाभूद्यमुशिग्भ्यो वनदो विद्वांसः पनन्त सनामिमीत तं सर्वे सम्यक् संप्रयुञ्जताम् ॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (आ) (यत्) यः (मे) मम (अभ्वम्) उदकमिव (वनदः) प्रशंसितारः (पनन्त) स्तुवन्ति (उशिग्भ्यः) कामयमानेभ्यः (नः) निषेधे (अमिमीत) मिमीते (वर्णम्) रूपम् (सः) (चित्रेण) अद्भुतेन (चिकिते) विज्ञापयति (रंसु) रमणीयम् (भासा) प्रकाशेन (जुजुर्वान्) जीर्णः (यः) (मुहुः) वारंवारम् (आ) (युवा) यौवनस्थ इव (भूत्) भवति ॥५॥
भावार्थभाषाः - योऽग्निः सर्वमविद्यमानं विद्यमानवत्करोति यथा जीवो जीर्णावस्थां मरणञ्च प्राप्य पुनर्जायमानो युवा भवति तथा पुनः पुनर्वृद्धिक्षयौ प्राप्नोति सोऽग्निर्व्यवहारेषु योजनीयः ॥५॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - भावार्थ -जो अग्नी अप्रकट असलेल्यांना प्रकट करतो व जसा जीव जरा व मृत्यूला प्राप्त होतो व पुन्हा उत्पन्न होऊन तरुण बनतो तसे ज्याचा पुन्हा पुन्हा वृद्धी व क्षय होतो त्या अग्नीला व्यवहारात युक्त केले पाहिजे. ॥ ५ ॥