वाते॑वाजु॒र्या न॒द्ये॑व री॒तिर॒क्षीइ॑व॒ चक्षु॒षा या॑तम॒र्वाक्। हस्ता॑विव त॒न्वे॒३॒॑ शंभ॑विष्ठा॒ पादे॑व नो नयतं॒ वस्यो॒ अच्छ॑॥
vātevājuryā nadyeva rītir akṣī iva cakṣuṣā yātam arvāk | hastāv iva tanve śambhaviṣṭhā pādeva no nayataṁ vasyo accha ||
वाता॑ऽइव। अ॒जु॒र्या। न॒द्या॑ऽइव। री॒तिः। अ॒क्षी इ॒वेत्य॒क्षीऽइ॑व। चक्षु॑षा। आ। या॒त॒म्। अ॒र्वाक्। हस्तौ॑ऽइव। त॒न्वे॑। शम्ऽभ॑विष्ठा। पादा॑ऽइव। नः॒। न॒य॒त॒म्। वस्यः॑। अच्छ॑॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
स्वामी दयानन्द सरस्वती
पुनस्तमेव विषयमाह।
हे विद्वांसौ यौ वातेवाजुर्या नद्येवरीतिर्गन्तारावक्षी इव चक्षुषाऽर्वागायातं हस्ताविव तन्वे शम्भविष्ठा पादेव नो वस्योऽच्छ नयतं तौ जलाग्नी अस्मान् बोधय ॥५॥