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जु॒षेथां॑ य॒ज्ञं बोध॑तं॒ हव॑स्य मे स॒त्तो होता॑ नि॒विदः॑ पू॒र्व्या अनु॑। अच्छा॒ राजा॑ना॒ नम॑ एत्या॒वृतं॑ प्रशा॒स्त्रादा पि॑बतं सो॒म्यं मधु॑॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

juṣethāṁ yajñam bodhataṁ havasya me satto hotā nividaḥ pūrvyā anu | acchā rājānā nama ety āvṛtam praśāstrād ā pibataṁ somyam madhu ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

जु॒षेथा॑म्। य॒ज्ञम्। बोध॑तम्। हव॑स्य। मे॒। स॒त्तः। होता॑। नि॒ऽविदः॑। पू॒र्व्याः। अनु॑। अच्छ॑। राजा॑ना। नमः॑। ए॒ति॒। आ॒ऽवृत॑म्। प्र॒ऽशा॒स्त्रात्। आ। पि॒ब॒त॒म्। सो॒म्यम्। मधु॑॥

ऋग्वेद » मण्डल:2» सूक्त:36» मन्त्र:6 | अष्टक:2» अध्याय:7» वर्ग:25» मन्त्र:6 | मण्डल:2» अनुवाक:4» मन्त्र:6


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (राजाना) राजजनो ! (मे) मेरे (हवस्य) देने-लेने योग्य व्यवहारसम्बन्धी (यज्ञम्) विद्वानों के सत्कार आदि काम को (जुषेथाम्) सेवो (पूर्व्याः) पूर्व विद्वानों ने सेवन की हुई (निविदः) जिनसे निरन्तर विषयों को जानते हैं उन वाणियों को (अच्छ, अनु, बोधतम्) अच्छे प्रकार अनुकूलता से जानो जैसे (सत्तः) प्रतिष्ठित (होता) देनेवाला (आवृतम्) अत्युत्तमता से ढपे हुए (नमः) अन्न को (एति) प्राप्त होता है वैसे तुम दोनों (प्रशास्त्रात्) उत्तम शिक्षा करनेवाले से (सोम्यम्) शान्ति वा शीतलता के योग्य (मधु) मधुर गुणयुक्त रस को (आ, पिबतम्) अच्छे प्रकार पिओ ॥६॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जैसे पढ़ाने वा उपदेश करनेवाले आप लोगों के प्रति प्रीति से विद्यादान और सत्योपदेश के साथ वर्त्तमान हैं, वैसे आप भी वर्त्तें ॥६॥ इस सूक्त में विद्वानों के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्तार्थ के साथ संगति है, यह जानना चाहिये ॥ यह छत्तीसवाँ सूक्त पच्चीसवाँ वर्ग और सप्तमाध्याय समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे राजाना मे हवस्य यज्ञं जुषेथां पूर्व्या निविदोऽच्छानुबोधतं यथा सत्तो होता आवृतं नम एति तथा युवां प्रशास्त्रात्सोम्यं मध्वा पिबतम् ॥६॥

पदार्थान्वयभाषाः - (जुषेथाम्) सेवेथाम् (यज्ञम्) विद्वत्सत्कारादिकम् (बोधतम्) विजानीतम् (हवस्य) दातुमादातुमर्हस्य (मे) मम (सत्तः) प्रतिष्ठितः (होता) दाता (निविदः) नितरां विदन्ति याभ्यस्ता वाचः। निविदिति वाङ्नाम निघं० १। ११। (पूर्व्याः) पूर्वैर्विद्वद्भिः सेविताः (अनु) (अच्छ) अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (राजाना) देदीप्यमानावध्यापकोपदेशकौ (नमः) अन्नम् (एति) आप्नोति (आवृतम्) समन्तादाच्छादितम् (प्रशास्त्रात्) (आ) (पिबतम्) (सोम्यम्) यत्सोममर्हति तत् (मधु) मधुरगुणोपेतम् ॥६॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या यथाऽध्यापका उपदेष्टारश्च युष्मान्प्रति प्रीत्या विद्यादानसत्योपदेशाभ्यां सह वर्त्तन्ते तथा यूयमपि वर्त्तध्वमिति ॥६॥ अत्र विद्वद्गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति बोध्यम् ॥ इति षट्त्रिंशत्तमं सूक्तं पञ्चविंशो वर्गः सप्तमोऽध्यायश्च समाप्तः ॥ श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्याणां परमविदुषां श्रीविरजानन्दसरस्वतीस्वामिनां शिष्येण परमहंसपरिव्राजकाचार्येण श्रीमद्दयानन्दस्वामिना विरचिते संस्कृतार्य्यभाषाभ्यां समन्विते सुप्रमाणयुक्ते ग्वेदभाष्ये द्वितीयाष्टके सप्तमोऽध्याय आदितः पञ्चदशोऽध्यायः परिपूर्णः। इति ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जसे अध्यापक, उपदेशक तुमच्याबरोबर प्रेमाने विद्यादान करून सत्योपदेशाने वागतात तसे तुम्हीही वागा. ॥ ६ ॥