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हिर॑ण्यरूपः॒ स हिर॑ण्यसंदृग॒पां नपा॒त्सेदु॒ हिर॑ण्यवर्णः। हि॒र॒ण्यया॒त्परि॒ योने॑र्नि॒षद्या॑ हिरण्य॒दा द॑द॒त्यन्न॑मस्मै॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

hiraṇyarūpaḥ sa hiraṇyasaṁdṛg apāṁ napāt sed u hiraṇyavarṇaḥ | hiraṇyayāt pari yoner niṣadyā hiraṇyadā dadaty annam asmai ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

हिर॑ण्यऽरूपः। सः। हिर॑ण्यऽसन्दृक्। अ॒पाम्। नपा॑त्। सः। इत्। ऊँ॒ इति॑। हिर॑ण्यऽवर्णः। हि॒र॒ण्यया॒त्। परि॑। योनेः॑। नि॒ऽसद्य॑। हि॒र॒ण्य॒ऽदाः। द॒द॒ति॒। अन्न॑म्। अ॒स्मै॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:2» सूक्त:35» मन्त्र:10 | अष्टक:2» अध्याय:7» वर्ग:23» मन्त्र:5 | मण्डल:2» अनुवाक:4» मन्त्र:10


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगल मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - जो (हिरण्यदाः) वायु तेज देते हैं वे (अस्मै) इस प्राणी के लिये (अन्नम्) अन्न को (ददति) देते हैं (सः) वह (हिरण्यरूपः) तेजःस्वरूप (हिरण्यसंदृक्) तेज को दर्शाता (स,इत्,उ) वही (हिरण्यवर्णः) सुवर्ण के समान वर्णयुक्त (अपाम्,नपात्) जलों के बीच न गिरनेवाला (हिरण्ययात्) तेजःस्वरूप (योनेः) निज कारण से (परि,निषद्य) सब ओर से निरन्तर स्थिर हुआ अग्नि सबको पालन करता है ॥१०॥
भावार्थभाषाः - जो अग्नि पवन से उत्पन्न हुआ समस्त पदार्थों को दिखानेवाला सब पदार्थों के भीतर रहता हुआ सर्वविद्याओं का निमित्त है, उसको जानकर प्रयोजन सिद्ध करना चाहिये ॥१०॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

हिरण्यरूप- हिरण्यसंदृक्-हिरण्यवर्ण

पदार्थान्वयभाषाः - १. (सः) = वह (अपां नपात्) = शक्ति न नष्ट होने देनेवाला पुरुष (हिरण्यरूपः) = [रूपं शरीरम्] तेजस्वीरूपवाला होता है। (हिरण्यसंदृक्) = [संपश्यन्ति इति संदृश: इन्द्रियाणि सा०] दीप्त इन्द्रियोंवाला होता है। (सः इत् उ) = वही निश्चय से (हिरण्यवर्ण:) = उस ज्योतिर्मय प्रभु का वर्णन [=कीर्तन स्मरण] करनेवाला होता हैं। २. इस (हिरण्ययात्) = दीप्त तेजस्वी (योनेः) = शरीररूप गृह से (परि निषद्या) = ऊपर उठकर [परेर्वर्जने]-शरीर में रहता हुआ भी शरीर में अनासक्त हुआ हुआ सदेह होते हुए भी विदेह की भाँति रहता हुआ (हिरण्यदाः) = वह धनों का दान करनेवाला होता है। ३. (अस्मै) = इस प्रभुप्राप्ति के लिए इस (अपां नपात्) = की वृत्तिवाले पुरुष (अन्नं ददति) = अन्न देनेवाले होते हैं। इनके द्वार से कोई भूखा विना अन्नप्राप्ति के लौटता नहीं। ये भूखे के लिए अन्न देते ही हैं। संसार में आसक्त न होने से ये अपने भोगों को ही नहीं बढ़ाते जाते ।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- संयमी पुरुष तेजस्वी, दीप्त इन्द्रियोंवाला, व प्रभु का उपासक बनता है। यह शरीर में आसक्त न हुआ-हुआ दान देनेवाला बनता है। भूखे के लिए अवश्य अन्न देता है । यह वृत्ति इसे प्रभु प्राप्त करानेवाली होती है।
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

ये हिरण्यदा अस्मा अन्नं ददति स हिरण्यरूपो हिरण्यसंदृक् स इदु हिरण्यवर्णोऽपांनपात् हिरण्ययाद्योनेः परि निषद्य सर्वान् पालयति ॥१०॥

पदार्थान्वयभाषाः - (हिरण्यरूपः) तेजःस्वरूपः (सः) (हिरण्यसंदृक्) यो हिरण्यं तेजः सम्यक् दर्शयति (अपाम्) जलानाम् (नपात्) (सः) (इत्) एव (उ) वितर्के (हिरण्यवर्णः) हिरण्यं सुवर्णमिव वर्णो यस्य सः (हिरण्ययात्) तेजोमयात् (परि) (योनेः) स्वकारणात् (निषद्य) निषण्णो भूत्वा। अत्र निपातस्येति दीर्घः। (हिरण्यदाः) ये वायवो हिरण्यं तेजो ददति ते (ददति) (अन्नम्) (अस्मै) प्राणिने ॥१०॥
भावार्थभाषाः - योऽग्निर्वायुजोऽखिलवस्तुदर्शकोऽन्तर्हितो सर्वविद्यानिमित्तोऽस्ति तं विज्ञाय प्रयोजनसिद्धिः कार्या ॥१०॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Golden of form, Apam-napat, the child of waters, golden eyed revealing its gold, golden coloured, abides higher than the golden seat of its origin, and the golden feeder energies of physical existence provide the food for its growth.
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आचार्य धर्मदेव विद्या मार्तण्ड

The merits of learned persons are explained.

अन्वय:

The winds give splendor to all the beings. The fire preserves all which is of golden form (full of splendor), which is the manifester of splendor, which is the gold coloured, born of the cause and which is full of splendor.

भावार्थभाषाः - You should know thoroughly the nature of the fire which is born of the air, which is the root cause of giving appearances to all the objects. It is hidden in all the substances and means of the knowledge of all articles. Knowing its properties thoroughly, you should accomplish all the purposes.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जो अग्नी वायूपासून उत्पन्न होऊन संपूर्ण पदार्थांचे दर्शन करविणारा असतो व सर्व पदार्थांमध्ये राहतो तसेच सर्व विद्यांचे निमित्त असतो, त्याला जाणून प्रयोजन सिद्ध केले पाहिजे. ॥ १० ॥