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ए॒ता वो॑ व॒श्म्युद्य॑ता यजत्रा॒ अत॑क्षन्ना॒यवो॒ नव्य॑से॒ सम्। श्र॒व॒स्यवो॒ वाजं॑ चका॒नाः सप्ति॒र्न रथ्यो॒ अह॑ धी॒तिम॑श्याः॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

etā vo vaśmy udyatā yajatrā atakṣann āyavo navyase sam | śravasyavo vājaṁ cakānāḥ saptir na rathyo aha dhītim aśyāḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ए॒ता। वः॒। व॒श्मि॒। उ॒त्ऽय॑ता। य॒ज॒त्राः॒। अत॑क्षन्। आ॒यवः॑। नव्य॑से। सम्। श्र॒व॒स्यवः॑। वाज॑म्। च॒का॒नाः। सप्तिः॑। न। रथ्यः॑। अह॑। धी॒तिम्। अ॒श्याः॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:2» सूक्त:31» मन्त्र:7 | अष्टक:2» अध्याय:7» वर्ग:14» मन्त्र:7 | मण्डल:2» अनुवाक:3» मन्त्र:7


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - जैसे (वाजम्) विज्ञान को (चकानाः) चाहते हुए (श्रवस्यवः) अपने को अन्न वा शास्त्र सुनने की इच्छा करते हुए (यजत्राः) मेल-मिलाप रखते हुए (आयवः) मनुष्य (नव्यसे) अति नवीन जन के लिये (रथ्यः) रथ के चलानेवाले (सप्तिः) घोड़े के (न) तुल्य विचारणीय विषय को (सम्,अतक्षन्) सम्यक् सूक्ष्म करते हैं अर्थात् अच्छे प्रकार ग्रहण किये वचनों को मैं (वश्मि) चाहता हूँ, हे विद्वन् ! जैसे आप (अह) नियमपूर्वक (धीतिम्) धैर्य को (अश्याः) प्राप्त होओ वैसे मैं भी धैर्य को प्राप्त होऊँ ॥७॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। मनुष्यों को चाहिये कि जिस-जिस पदार्थ की कामना विद्वान् लोग करें, उस-उसकी कामना करें। जैसे विद्वान् लोग उपदेश करें, वैसे उसको सुन निश्चय कर स्वीकार और अनुष्ठान किया करें ॥७॥ इस मन्त्र में विद्वान् और विदुषी स्त्रियों के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त में कहे अर्थ की पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ संगति है, यह जानना चाहिये ॥ यह इकत्तीसवाँ सूक्त और चौदहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

यथा वाजं चकानाः श्रवस्यवो यजत्रा आयवो नव्यसे रथ्यः सप्तिर्न समतक्षन् तथा व एतोद्यताऽहं वश्मि। हे विद्वन् यथा त्वमहधीतिमश्यास्तथाऽहं प्राप्नुयाम ॥७॥

पदार्थान्वयभाषाः - (एता) एतानि (वः) युष्माकम् (वश्मि) कामये (उद्यता) उत्कृष्टतया यतानि गृहीतानि (यजत्राः) सङ्गन्तारः (अतक्षन्) तनू कुर्वन्ति (आयवः) मनुष्याः। आयव इति मनुष्यना० निघं० १। १४ (न) इव (रथ्यः) यो रथं वहति सः (अह) विनिग्रहे (धीतिम्) (अश्याः) प्राप्नुयाः ॥७॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। मनुष्यैर्यद्यद्विद्वांसः कामयन्ते तत्तत्सदा कामनीयं यथैव उपदिशेयुस्तथा तच्छ्रुत्वा निश्चित्य ग्रहीतव्यं करणीयञ्चेति ॥७॥ अत्र विद्वद्विदुषीगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम्॥ इत्येकाधिकत्रिंशत्तमं सूक्तं चतुर्दशो वर्गश्च समाप्तः ॥ फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. ज्या ज्या पदार्थाची कामना विद्वान लोक करतात त्याची कामना माणसांनी करावी. विद्वान लोक उपदेश करतात तो ऐकून, स्वीकारून, निश्चय करून अनुष्ठान करावे. ॥ ७ ॥