ऋ॒तं दे॒वाय॑ कृण्व॒ते स॑वि॒त्र इन्द्रा॑याहि॒घ्ने न र॑मन्त॒ आपः॑। अह॑रहर्यात्य॒क्तुर॒पां किया॒त्या प्र॑थ॒मः सर्ग॑ आसाम्॥
ṛtaṁ devāya kṛṇvate savitra indrāyāhighne na ramanta āpaḥ | ahar-ahar yāty aktur apāṁ kiyāty ā prathamaḥ sarga āsām ||
ऋ॒तम्। दे॒वाय॑। कृ॒ण्व॒ते। स॒वि॒त्रे। इन्द्रा॑य। अ॒हि॒ऽघ्ने। न। र॒म॒न्ते॒। आपः॑। अहः॑ऽअहः। या॒ति॒। अ॒क्तुः। अ॒पाम्। किय॑ति। आ। प्र॒थ॒मः। सर्गः॑। आ॒सा॒म्॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब तीसवें सूक्त का आरम्भ है , इसके प्रथम मन्त्र में वायु और सूर्य का विषय कहते हैं।
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अथ वायुसूर्यविषयमाह।
हे मनुष्या युष्माभिरृतं कृण्वते सवित्रेऽहिघ्न इन्द्राय देवाय य अहरहरापो न रमन्त आसामपां प्रथमः सर्गोऽक्तुः कियत्यायाति तं यूयं विजानीत ॥१॥
माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)या सूक्तात स्त्री-पुरुष, राजा-प्रजा यांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणावी.