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दैव्या॒ होता॑रा प्रथ॒मा वि॒दुष्ट॑र ऋ॒जु य॑क्षतः॒ समृ॒चा व॒पुष्ट॑रा। दे॒वान्यज॑न्तावृतु॒था सम॑ञ्जतो॒ नाभा॑ पृथि॒व्या अधि॒ सानु॑षु त्रि॒षु॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

daivyā hotārā prathamā viduṣṭara ṛju yakṣataḥ sam ṛcā vapuṣṭarā | devān yajantāv ṛtuthā sam añjato nābhā pṛthivyā adhi sānuṣu triṣu ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

दैव्या॑। होता॑रा। प्र॒थ॒मा। वि॒दुःऽत॑रा। ऋ॒जु। य॒क्ष॒तः॒। सम्। ऋ॒चा। व॒पुःऽत॑रा। दे॒वान्। यज॑न्तौ। ऋ॒तु॒ऽथा। सम्। अ॒ञ्ज॒तः॒। नाभा॑। पृ॒थि॒व्याः। अधि॑। सानु॑षु। त्रि॒षु॥

ऋग्वेद » मण्डल:2» सूक्त:3» मन्त्र:7 | अष्टक:2» अध्याय:5» वर्ग:23» मन्त्र:2 | मण्डल:2» अनुवाक:1» मन्त्र:7


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे (दैव्या) विद्वानों मे कुशल (होतारा) लेने-देनेवाले (प्रथमा) प्रख्यात (विदुष्टरा) अतीव विद्वान् (वपुष्टरा) अतीव रूपलावण्ययुक्त (चा) प्रशंसित (तुथा) तु-तु में (देवान्) पृथिवी आदि लोकों के समान विद्वानों का (यजन्तौ) सत्कार करते हुए स्त्री-पुरुष (पृथिव्याः) पृथिवी के (नाभा) बीच (जु) सरलता जैसे हो वैसे (संयक्षतः) सब व्यवहारों की सङ्गति करें वा (त्रिषु) तीन (सानुषु) शिखरों के (अधि) ऊपर (समञ्जतः) अच्छे प्रकार काम करें, वैसे तुम भी प्रयत्न करो ॥७॥
भावार्थभाषाः - जैसे ब्रह्मचर्य से पूर्ण विद्या और शिक्षा को प्राप्त सुन्दरता से युक्त स्वयंवर विवाहविधि से पाणिग्रहण किये हुए विद्वानों के सङ्गी आप्त शास्त्रज्ञ धर्मात्मा विद्वान् अध्यापक स्त्रीपुरुष सत्कर्मों में वर्त्तते हैं, वैसे सबको प्रयत्न करना चाहिये ॥७॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे मनुष्या यथा दैव्या होतारा प्रथमा विदुष्टरा वपुष्टरा चा तुथा देवान्यजन्तौ स्त्रीपुरुषौ पृथिव्या नाभा जु संयक्षतस्त्रिषु सानुष्वधिसमञ्जतस्तथा यूयमपि प्रयतध्वम् ॥७॥

पदार्थान्वयभाषाः - (दैव्या) देवेषु विद्वत्सु कुशलौ (होतारा) आदातारौ दातारौ वा (प्रथमा) प्रख्यातौ (विदुष्टरा) अतिशयेन विद्वांसौ (जु) सरलं यथा स्यात्तथा (यक्षतः) सङ्गच्छतः (सम्) सम्यक् (चा) प्रशंसितौ (वपुष्टरा) अतिशयेन रूपलावण्ययुक्तौ (देवान्) पृथिव्यादीनिव विदुषः (यजन्तौ) सत्कुर्वन्तौ (तुथा) तावृतौ (सम्) सम्यक् (अञ्जतः) कामयेथाम् (नाभा) नाभौ मध्ये (पृथिव्याः) (अधि) उपरि (सानुषु) शिखरेषु (त्रिषु) निकृष्टमध्यमोत्तमेषु ॥७॥
भावार्थभाषाः - यथा ब्रह्मचर्येण पूर्णविद्याशिक्षौ सौन्दर्ययुक्तौ स्वयंवरविवाहेन गृहीतपाणी विद्वत्सङ्गिनावाप्तावध्यापकौ स्त्रीपुरुषौ सत्कर्मसु वर्त्तेते तथा सर्वैः प्रयतितव्यम् ॥७॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जसे ब्रह्मचर्याने पूर्ण विद्या व शिक्षण प्राप्त केलेले, सौंदर्याने युक्त, स्वयंवरविधीने पाणिग्रहण केलेले, विद्वानांच्या संगतीत राहणारे आप्त, शास्त्रज्ञ, धर्मात्मा, विद्वान, अध्यापक स्त्री-पुरुष सत्कर्माने वागतात, तसा सर्वांनी प्रयत्न करावा. ॥ ७ ॥