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किमू॒ नु वः॑ कृणवा॒माप॑रेण॒ किं सने॑न वसव॒ आप्ये॑न। यू॒यं नो॑ मित्रावरुणादिते च स्व॒स्तिमि॑न्द्रामरुतो दधात॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

kim ū nu vaḥ kṛṇavāmāpareṇa kiṁ sanena vasava āpyena | yūyaṁ no mitrāvaruṇādite ca svastim indrāmaruto dadhāta ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

किम्। ऊँ॒ इति॑। नु। वः॒। कृ॒ण॒वा॒म॒। अप॑रेण। किम्। सने॑न। व॒स॒वः॒। आप्ये॑न। यू॒यम्। नः॒। मि॒त्रा॒व॒रु॒णा॒। अ॒दि॒ते॒। च॒। स्व॒स्तिम्। इ॒न्द्रा॒म॒रु॒तः॒। द॒धा॒त॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:2» सूक्त:29» मन्त्र:3 | अष्टक:2» अध्याय:7» वर्ग:11» मन्त्र:3 | मण्डल:2» अनुवाक:3» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (वसवः) पृथिव्यादि के तुल्य विद्या को निवास देनवाले विद्वानो ! हम लोग (वः) आपके (किम्,उ) किसी कार्य को (कृणवाम) करें। (अपरेण) अन्य (सनेन) विभाग को प्राप्त (व्याप्येन) व्याप्त वस्तु से (किम्) क्या ही करें। हे (मित्रावरुणा) प्राण-अपान के तुल्य प्रियकारी अध्यापक और उपदेशक (च) और (अदिते) विदुषि माता! (यूयम्) तुम लोग (नः) हमारे लिये (स्वस्तिम्) कल्याण को तथा (इन्द्रामरुतः) बिजली और वायुओं को (दधात) धारण करो ॥३॥
भावार्थभाषाः - जो प्रथम कक्षा के विद्वान् हों, उनको राजा लोग पूछें कि आपकी क्या सेवा हम करें, क्या-क्या तुमको देवें, जिससे विद्या सुशिक्षा और धर्म की उन्नति करो ॥३॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे वसवो वयं वः किमु कृणवामापरेण सनेनाप्येन किन्नु कुर्याम। हे मित्रावरुणाऽदिते च यूयं नः स्वस्तिमिन्द्रामरुतो दधात ॥३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (किम्) (उ) (नु) (वः) युष्माकम् (कृणवाम) कुर्याम (अपरेण) अन्येन (किम्) (सनेन) विभक्तेन (वसवः) पृथिव्यादय इव विद्यानिवासाः (आप्येन) व्याप्येन वस्तुना (यूयम्) (नः) अस्मभ्यम् (मित्रावरुणा) प्राणाऽपानाविव प्रियकारकावध्यापकोपदेशकौ (अदिते) विदुषि मातः (स्वस्तिम्) (इन्द्रामरुतः) इन्द्रश्च विद्युन्मरुतश्च वायवस्तान् (दधात) धरत ॥३॥
भावार्थभाषाः - ये प्रथमकल्पा विद्वांसः स्युस्तान् राजानः पृच्छेयुर्युष्माकं कां सेवां वयं कुर्याम किं किं युष्मभ्यं दद्याम येन यूयं विद्यासुशिक्षाधर्मोन्नतिं कुर्यात् ॥३॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे प्रथम श्रेणीचे विद्वान असतात त्यांना राजाने विचारावे की आम्ही तुमची कोणती सेवा करावी? तुम्हाला कोणते काम द्यावे? ज्यामुळे तुम्ही विद्या व सुशिक्षण आणि धर्माची उन्नती कराल? ॥ ३ ॥