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अपो॒ सु म्य॑क्ष वरुण भि॒यसं॒ मत्सम्रा॒ळृता॒वोऽनु॑ मा गृभाय। दामे॑व व॒त्साद्वि मु॑मु॒ग्ध्यंहो॑ न॒हि त्वदा॒रे नि॒मिष॑श्च॒नेशे॑॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

apo su myakṣa varuṇa bhiyasam mat samrāḻ ṛtāvo nu mā gṛbhāya | dāmeva vatsād vi mumugdhy aṁho nahi tvad āre nimiṣaś caneśe ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अपो॒ इति॑। सु। म्य॒क्ष॒। व॒रु॒ण॒। भि॒यस॑म्। मत्। सम्ऽरा॑ट्। ऋत॒ऽवः। अनु॑। मा॒। गृ॒भा॒य॒। दाम॑ऽइव। व॒त्सात्। वि। मु॒मु॒ग्धि॒। अंहः॑। न॒हि। त्वत्। आ॒रे। नि॒ऽमिषः॑। च॒न। ईशे॑॥

ऋग्वेद » मण्डल:2» सूक्त:28» मन्त्र:6 | अष्टक:2» अध्याय:7» वर्ग:10» मन्त्र:1 | मण्डल:2» अनुवाक:3» मन्त्र:6


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर अध्यापक और उपदेशक के विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (वरुण) श्रेष्ठ जन आप (मत्) मेरे सम्बन्ध से (भियसम्) भय को (अपो,न्यक्ष) दूर कीजिये, हे (तावः) बहुत सत्य को ग्रहण करनेवाले (सम्राट्) सम्यक् प्रकाशमान आप (मा) मुझ पर (अनु,गृभाय) अनुग्रह करो (वत्सात्) बछड़े से गौ को वैसे मुझसे (अंहः) अपराध को (सु,वि,मुमुग्धि) सुन्दर प्रकार विशेषकर छुड़ाइये (त्वत्) आपके सम्बन्ध से (आरे) निकट वा दूर (निमिषः) निरन्तर (चन) भी कोई (नहि) नहीं (ईशे) समर्थ होता है ॥६॥
भावार्थभाषाः - अध्यापक और उपदेशक पहले से सबके भय को निकाल विद्या का ग्रहण करावें, बुरे व्यसन छुड़ावें, जिससे उनके दूर वा समीप में कोई धर्म से रोकनेवाला न हो ॥६॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनरध्यापकोपदेशकविषयमाह।

अन्वय:

हे वरुण त्वं मद्भियसमपो न्यक्ष। हे तावः सम्राट् त्वं मानुगृभाय वत्साद्गामिव मदंहः सु विमुमुग्धि त्वदारे निमिषश्चन कश्चिन्नहीशे ॥६॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अपो) (सु) (म्यक्ष) गमय (वरुण) श्रेष्ठ (भियसम्) भयम् (मत्) मम सकाशात् (सम्राट्) यः सम्यग् राजते सः (तवः) तं सत्यं बहुविधं विद्यते यस्य तत्सम्बुद्धौ (अनु) (मा) माम् (गृभाय) गृह्णीयाः (दामेव) यथा रज्जुः (वत्सात्) (वि) (मुमुग्धि) मुञ्च (अंहः) अपराधम् (नहि) (त्वत्) तव सकाशात् (आरे) निकटे दूरे वा (निमिषः) निरन्तरम् (चन) (ईशे) ॥६॥
भावार्थभाषाः - अध्यापका उपदेशका वा प्रथमतः सर्वेषां भयं निस्सार्य विद्याग्रहणं कारयेयुः कुव्यसनानि त्याजयेयुर्यतस्तेषां दूरे समीपे वा कोऽपि धर्मान्निवारयिता न स्यात् ॥६॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - अध्यापक व उपदेशकांनी प्रथम सर्वांचे भय नाहीसे करावे. विद्येचे ग्रहण करावे. वाईट व्यसन सोडवावे. ज्यामुळे दूर असलेले किंवा जवळ असलेले कुणीही धर्माला विरोध करणारे नसावेत. ॥ ६ ॥