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माहं म॒घोनो॑ वरुण प्रि॒यस्य॑ भूरि॒दाव्न॒ आ वि॑दं॒ शून॑मा॒पेः। मा रा॒यो रा॑जन्त्सु॒यमा॒दव॑ स्थां बृ॒हद्व॑देम वि॒दथे॑ सु॒वीराः॑॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

māham maghono varuṇa priyasya bhūridāvna ā vidaṁ śūnam āpeḥ | mā rāyo rājan suyamād ava sthām bṛhad vadema vidathe suvīrāḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

मा। अ॒हम्। म॒घोनः। व॒रु॒ण॒। प्रि॒यस्य॑। भू॒रि॒ऽदाव्नः॑। आ। वि॒द॒म्। शून॑म्। आ॒पेः। मा। रा॒यः। रा॒जन्। सु॒ऽयमा॑त्। अव॑। स्था॒म्। बृ॒हत्। व॒दे॒म॒। वि॒दथे॑। सु॒ऽवीराः॑॥

ऋग्वेद » मण्डल:2» सूक्त:28» मन्त्र:11 | अष्टक:2» अध्याय:7» वर्ग:10» मन्त्र:6 | मण्डल:2» अनुवाक:3» मन्त्र:11


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्य क्या करे, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (वरुण) श्रेष्ठ (राजन्) राजपुरुष जैसे (अहम्) मैं अन्याय से (प्रियस्य) प्यारे (मघोनः) बहुत अच्छे धनवाले (भूरिदाव्नः) बहुत पदार्थों के दाता मनुष्य के विरोध को (आ,विदम्) प्राप्त होऊँ उससे (शूनम्) सुख को न प्राप्त होऊँ, प्राप्त धन से (सुयमात्) सुन्दर वैर आदि व्यवहार के साधक (रायः) धन से विरोध में मैं (या,अव,स्थाम्) न अब स्थित होऊँ वैसे आप हों ऐसे करते हुए (सुवीराः) सुन्दर वीरोंवाले हम (विदथे) विज्ञान के निमित्त निरन्तर (बृहत्) बड़ा अच्छा (वदेम) कहें ॥११॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि अन्याय से बिना आज्ञा परपदार्थ के ग्रहण की इच्छा कभी न करें किन्तु धर्मयुक्त व्यवहार से यथाशक्ति धन संचय करें ॥११॥ इस सूक्त में विद्वान् और राजा प्रजा के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त में कहे अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ संगति जाननी चाहिये ॥ यह अट्ठाइसवाँ सूक्त और दशवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्याः किं कुर्य्युरित्याह।

अन्वय:

हे वरुण राजन् यथाऽहमन्यायेन प्रियस्य मघोनो भूरिदाव्नो जनस्य विरोधमाविदम्। तेन शूनं मा प्राप्नुयामापेः सुयमाद्रायो विरोधेऽहं मावस्थां तथा त्वं भवैवं कुर्वन्तः सुवीरा वयं विदथे सततं बृहद्वदेम ॥११॥

पदार्थान्वयभाषाः - (मा) (अहम्) (मघोनः) बहुपूज्यधनस्य (वरुण) (प्रियस्य) (भूरिदाव्नः) बहुदातुः (आ) (विदम्) प्राप्नुयाम् (शूनम्) सुखम् (आपेः) प्राप्तधनात् (मा) (रायः) धनात् (राजन्) (सुयमात्) शोभना यमा वैरादयो व्यवहारा यस्मात्तस्मात् (अव) (स्थाम्) अवतिष्ठस्व (बृहत्) (वदेम) (विदथे) विज्ञाने (सुवीराः) ॥११॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैरन्यायेन विना परपदार्थस्य ग्रहणेच्छा कदापि न कार्य्या किन्तु धर्म्येण व्यवहारेण धनं सञ्चयनीयमिति ॥११॥ । अत्र विद्वद्राजप्रजागुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेदितव्यम्॥ इत्यष्टाविंशतितमं सूक्तं दशमो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. परवानगी न घेता अन्यायाने दुसऱ्याच्या पदार्थाचे ग्रहण करण्याची इच्छा करू नये तर धर्मयुक्त व्यवहाराने यथाशक्ती धनाचा संचय करावा. ॥ ११ ॥