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सना॒ ता का चि॒द्भुव॑ना॒ भवी॑त्वा मा॒द्भिः श॒रद्भि॒र्दुरो॑ वरन्त वः। अय॑तन्ता चरतो अ॒न्यद॑न्य॒दिद्या च॒कार॑ व॒युना॒ ब्रह्म॑ण॒स्पतिः॑॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sanā tā kā cid bhuvanā bhavītvā mādbhiḥ śaradbhir duro varanta vaḥ | ayatantā carato anyad-anyad id yā cakāra vayunā brahmaṇas patiḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सना॑। ता। का। चि॒त्। भुव॑ना। भवी॑त्वा। मा॒त्ऽभिः। श॒रत्ऽभिः॑। दुरः॑। व॒र॒न्त॒। वः॒। अय॑तन्ता। च॒र॒तः॒। अ॒न्यत्ऽअ॑न्यत्। इत्। या। च॒कार॑। व॒युना॑। ब्रह्म॑णः। पतिः॑॥

ऋग्वेद » मण्डल:2» सूक्त:24» मन्त्र:5 | अष्टक:2» अध्याय:7» वर्ग:1» मन्त्र:5 | मण्डल:2» अनुवाक:3» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो जैसे सूर्य के किरण (माद्भिः) महीनों और (शरद्भिः) शरत् आदि तुओं के विभाग से (या) जो (सना) सनातन (का,चित्) कोई (भवीत्वा) होनेवाले (भुवना) लोक हैं (ता) उनको और (दुरः) द्वारों को (वरन्त) विवृत करते प्रकाशित करते हैं तथा जो (ब्रह्मणः, पतिः) विद्या और धन का पालक पुरुष (वः) तुमको (वयुना) विज्ञानयुक्त (चकार) करता है वह तुमको सेवने योग्य है जो (अयतन्ता) प्रयत्नरहित आलसी पढ़ने-पढ़ानेवाले (अन्यदन्यत्, इत्) अन्य-अन्य विरुद्ध ही (चरतः) करते हैं उनका सत्कार कभी न करना चाहिये ॥५॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सूर्य्य महीनों और तुओं को विभक्त कर मूर्त्त द्रव्यों का यथावत्स्वरूप दिखाता है, वैसे जो विद्वान् पृथिवी से लेके ईश्वरपर्यन्त पदार्थों को यथावत् शिक्षा से दिखावें, वे लोक में पूजनीय होवें और जो अविद्यायुक्त आलसी लोग कपट आदि से दूषित दुष्ट उपदेश करते वा निकम्मे बैठे रहते हैं, वे किसी को कभी सेवने योग्य नहीं हैं ॥५॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे मनुष्या यथा सूर्यस्य किरणा माद्भिः शरद्भिर्या यानि सना का चिद्भुवना भवीत्वा सन्ति ता दुरो वरन्त तथा यो ब्रह्मणस्पतिर्वो वयुना चकार स युष्माभिः सेव्यः। यावयतन्ताऽध्यापकाऽध्येतारावलसावन्यदन्यदिदेव चरतः कुरुतस्तौ न सत्कर्त्तव्यौ ॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (सना) सनातनानि (ता) तानि (का) कानि (चित्) अपि (भुवना) भुवनानि (भवीत्वा) भव्यानि (माद्भिः) मासैः (शरद्भिः) शरदाद्यृतुभिः (दुरः) द्वाराणि (वरन्त) वरयन्ति (वः) युष्मान् (अयतन्ता) प्रयत्नरहितौ (चरतः) कुरुतः (अन्यदन्यत्) भिन्नम्-भिन्नम् (इत्) एव (या) यानि (चकार) (वयुना) प्रज्ञानानि (ब्रह्मणः) विद्याधनस्य (पतिः) पालकः ॥५॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सूर्यो मासानृतून्विभज्य मूर्त्तानां द्रव्याणां यथावत्स्वरूपं दर्शयति तथा ये विद्वांसो पृथिवीमारभ्येश्वरपर्यन्तान्पदार्थान् यथावत् शिक्षया दर्शयेयुस्ते लोके पूजनीयाः स्युर्ये चाऽविद्यायुक्ताऽलसा कापट्यादिना दूषिता दुष्टोपदेशं कुर्वन्ति वा निष्पुरुषार्थास्तिष्ठन्ति ते केनचित्कदाचिन्नैव सेवनीयाः ॥५॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा सूर्य महिने व ऋतू यांना विभक्त करून मूर्त द्रव्यांचे यथावत स्वरूप दाखवितो तसे जे विद्वान पृथ्वीपासून ईश्वरापर्यंत पदार्थांचे शिक्षणाद्वारे दर्शन घडवितात, ते लोकात पूजनीय ठरतात व जे अविद्यायुक्त आळशी लोक कपट इत्यादीने दुष्ट उपदेश करतात किंवा निरुद्योगी असतात ते स्वीकारणीय नसतात. ॥ ५ ॥