तेजि॑ष्ठया तप॒नी र॒क्षस॑स्तप॒ ये त्वा॑ नि॒दे द॑धि॒रे दृ॒ष्टवी॑र्यम्। आ॒विस्तत्कृ॑ष्व॒ यदस॑त्त उ॒क्थ्यं१॒॑ बृह॑स्पते॒ वि प॑रि॒रापो॑ अर्दय॥
tejiṣṭhayā tapanī rakṣasas tapa ye tvā nide dadhire dṛṣṭavīryam | āvis tat kṛṣva yad asat ta ukthyam bṛhaspate vi parirāpo ardaya ||
तेजि॑ष्ठया। त॒प॒नी। र॒क्षसः॑। त॒प॒। ये। त्वा॒। नि॒दे। द॒धि॒रे। दृ॒ष्टऽवी॑र्यम्। आ॒विः। तत्। कृ॒ष्व॒। यत्। अस॑त्। ते॒। उ॒क्थ्य॑म्। बृह॑स्पते। वि। प॒रि॒ऽरपः॑। अ॒र्द॒य॒॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
स्वामी दयानन्द सरस्वती
पुनस्तमेव विषयमाह।
हे बृहस्पते ये दृष्टवीर्यं त्वा निदे दधिरे तान् रक्षसो या तपन्यस्ति तया तेजिष्ठया त्वं तप यत्ते तवोक्थमसत्तदाविष्कृष्व परिरापो व्यर्द्दय॥१४॥