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तेजि॑ष्ठया तप॒नी र॒क्षस॑स्तप॒ ये त्वा॑ नि॒दे द॑धि॒रे दृ॒ष्टवी॑र्यम्। आ॒विस्तत्कृ॑ष्व॒ यदस॑त्त उ॒क्थ्यं१॒॑ बृह॑स्पते॒ वि प॑रि॒रापो॑ अर्दय॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tejiṣṭhayā tapanī rakṣasas tapa ye tvā nide dadhire dṛṣṭavīryam | āvis tat kṛṣva yad asat ta ukthyam bṛhaspate vi parirāpo ardaya ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

तेजि॑ष्ठया। त॒प॒नी। र॒क्षसः॑। त॒प॒। ये। त्वा॒। नि॒दे। द॒धि॒रे। दृ॒ष्टऽवी॑र्यम्। आ॒विः। तत्। कृ॒ष्व॒। यत्। अस॑त्। ते॒। उ॒क्थ्य॑म्। बृह॑स्पते। वि। प॒रि॒ऽरपः॑। अ॒र्द॒य॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:2» सूक्त:23» मन्त्र:14 | अष्टक:2» अध्याय:6» वर्ग:31» मन्त्र:4 | मण्डल:2» अनुवाक:3» मन्त्र:14


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (बृहस्पते) बड़ों की पालना करनेवाले (ये) जो (दृष्टवीर्यम्) देखा है पराक्रम जिसका ऐसे (त्वा) तुझको (निदे) निन्दा के लिये (दधिरे) धारण करते उन (रक्षसः) राक्षसों को जो (तपनी) तपानेवाली है उस (तेजिष्ठया) अतीव तेजस्विनी से आप (तप) प्रताप दिखाओ (यत्) जो (ते) आपका (उक्थ्यम्) कहने योग्य प्रस्ताव (असत्) हो (तत्) उसको (आविष्कृष्व) प्रकट कीजिए (परिरापः) और सब ओर से पाप जिसके विद्यमान उसको (वि,अर्द्दय) विशेषता से नाशिये ॥१४॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को चाहिये कि निन्दकों की सर्वथा निवारि और स्तुति करनेवालों को बढ़ाय सत्यविद्याओं का प्रकाश करें ॥१४॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे बृहस्पते ये दृष्टवीर्यं त्वा निदे दधिरे तान् रक्षसो या तपन्यस्ति तया तेजिष्ठया त्वं तप यत्ते तवोक्थमसत्तदाविष्कृष्व परिरापो व्यर्द्दय॥१४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (तेजिष्ठया) अतिशयेन तेजस्विन्या (तपनी) सन्तापिनी (रक्षसः) दुष्टान् (तप) सन्तापय (ये) (त्वा) त्वाम् (निदे) निन्दायै (दधिरे) (दृष्टवीर्य्यम्) दृष्टं सम्प्रेक्षितं वीर्य्यं यस्य तम् (आविः) प्राकट्ये (तत्) (कृष्व) कुरुष्व (यत्) (असत्) भवेत् (ते) तव (उक्थ्यम्) वक्तुं योग्यम् (बृहस्पते) बृहतां पालक (वि) (परिरापः) परितोरपः पापं यस्य तम् (अर्द्दय) नाशय ॥१४॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैर्निन्दकान् सर्वथा निवार्य स्तावकान् प्रसार्य सत्यविद्याः प्रकटीकार्याः ॥१४॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - माणसांनी निंदकाचे सदैव निवारण करून स्तुती करणाऱ्यांची वृद्धी करावी व सत्य विद्यांचा प्रसार करावा. ॥ १४ ॥