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ए॒वा त॑ इन्द्रो॒चथ॑महेम श्रव॒स्या न त्मना॑ वा॒जय॑न्तः। अ॒श्याम॒ तत्साप्त॑माशुषा॒णा न॒नमो॒ वध॒रदे॑वस्य पी॒योः॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

evā ta indrocatham ahema śravasyā na tmanā vājayantaḥ | aśyāma tat sāptam āśuṣāṇā nanamo vadhar adevasya pīyoḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ए॒व। ते॒। इ॒न्द्र॒। उ॒चथ॑म्। अ॒हे॒म॒। श्र॒व॒स्या। न। त्मना॑। वा॒जय॑न्तः। अ॒श्याम॑। तत्। साप्त॑म्। आ॒शु॒षा॒णाः। न॒नमः॑। वधः॑। अदे॑वस्य। पी॒योः॥

ऋग्वेद » मण्डल:2» सूक्त:19» मन्त्र:7 | अष्टक:2» अध्याय:6» वर्ग:24» मन्त्र:2 | मण्डल:2» अनुवाक:2» मन्त्र:7


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब विद्वान् के विषय को इस मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) विद्वान् (ते) आपके (त्मना) आत्मा से (वाजयन्तः) ज्ञान कराते हुए हम लोग (श्रवस्या) श्रवण करने योग्य पदार्थ के (न) समान (उचथम्) और कहने योग्य प्रस्ताव (एव) ही को (अहेम) व्याप्त हों तथा (आशुषाणाः) शीघ्रता करते हुए हम लोग (तत्) उस (साप्तम्) सात प्रकार के विषय को (अश्याम) व्याप्त हों (अदेवस्य) अविद्वान् (पीयोः) पालना करनेवाले सूर्य को (वधः) वध करनेवाले शस्त्र को व्याप्त हों और परमेश्वर को (ननमः) नमस्कार करें ॥७॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य कहने योग्य को कहें, पाने योग्य को पावें, नमने योग्य को नमें, मारने योग्य को मारें और जानने योग्य को जानें, वे ही आप्त होते हैं ॥७॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ विद्वद्विषयमाह।

अन्वय:

हे इन्द्र ते त्मना वाजयन्तो वयं श्रवस्या नोचथमेवाहेम आशुषाणाः सन्तो वयं तत्साप्तमश्याम अदेवस्य पीयोर्वधोऽश्याम। परमेश्वरं च ननमः ॥७॥

पदार्थान्वयभाषाः - (एव) निश्चये। अत्र निपातस्य चेति दीर्घः (ते) तव (इन्द्र) विद्वन् (उचथम्) वक्तव्यम् (अहेम) व्याप्नुयाम् (श्रवस्या) श्रोतुं योग्यानि (न) इव (त्मना) आत्मना (वाजयन्तः) ज्ञापयन्तः (अश्याम) प्राप्नुयाम् (तत्) (साप्तम्) सप्तविधम् (आशुषाणाः) सद्यः कुर्वाणाः (ननमः) नमेम (वधः) वध्यन्ते शत्रवो यस्मात्तच्छस्त्रम् (अदेवस्य) (अविदुषः) (पीयोः) पातुः ॥७॥
भावार्थभाषाः - ये मनुष्या वक्तव्यं वदेयुः प्राप्तव्यं प्राप्नुयुर्नमस्यं नमेयुर्हन्तव्यं हन्युर्ज्ञातव्यं जानीयुस्त एवाप्ता जायन्ते ॥७॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जी माणसे सांगण्यायोग्य असणाऱ्यांना सांगतात, प्राप्त करण्यायोग्य असणाऱ्यांना प्राप्त करवितात, नमन करण्यायोग्य असणाऱ्यांना नमन करतात, मारण्यायोग्य असणाऱ्यांना मारतात, जाणण्यायोग्य असणाऱ्यांना जाणतात, तीच आप्त असतात. ॥ ७ ॥