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भो॒जं त्वामि॑न्द्र व॒यं हु॑वेम द॒दिष्ट्वमि॒न्द्रापां॑सि॒ वाजा॑न्। अ॒वि॒ड्ढी॑न्द्र चि॒त्रया॑ न ऊ॒ती कृ॒धि वृ॑षन्निन्द्र॒ वस्य॑सो नः॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

bhojaṁ tvām indra vayaṁ huvema dadiṣ ṭvam indrāpāṁsi vājān | aviḍḍhīndra citrayā na ūtī kṛdhi vṛṣann indra vasyaso naḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

भो॒जम्। त्वाम्। इ॒न्द्र॒। व॒यम्। हु॒वे॒म॒। द॒दिः। त्वम्। इ॒न्द्र॒। अपां॑सि। वाजा॑न्। अ॒वि॒ड्ढि। इ॒न्द्र॒। चि॒त्रया॑। नः॒। ऊ॒ती। कृ॒धि। वृ॒ष॒न्। इ॒न्द्र॒। वस्य॑सः। नः॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:2» सूक्त:17» मन्त्र:8 | अष्टक:2» अध्याय:6» वर्ग:20» मन्त्र:3 | मण्डल:2» अनुवाक:2» मन्त्र:8


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब विद्वान् के विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) परमैश्वर्ययुक्त विद्वान् जिन (भोजम्) भोगनेवाले (त्वाम्) आपको (वयम्) हम लोग (हुवेम) स्वीकार करें सो आप हम लोगों को स्वीकार कीजिये, हे (इन्द्र) दुःख विदीर्ण करनेवाले विद्वान्! (ददिः) दानशील (त्वम्) आप (अपांसि) कर्मों को (वाजान्) बोधों को (अविड्ढि) सुरक्षित करो, हे (इन्द्र) शत्रु विनाशनेवाले विद्वान् आप (चित्रया) चित्र-विचित्र अनेकविध (ऊती) रक्षा से युक्त (नः) हम लोगों को (कृधि) करो, हे (वृषन्) सींचनेवाले (इन्द्र) सुख देनेवाले विद्वान् आप (नः) हम लोगों को (वस्यसः) अत्यन्त धनवान् करो ॥८॥
भावार्थभाषाः - जैसे मित्र मित्रों की स्तुति करते हैं, वैसे पढ़नेवाले पढनेवालों की प्रशंसा करें, ऐसे एक-दूसरे की रक्षा से ऐश्वर्य की उन्नति करें ॥८॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ विद्वद्विषयमाह।

अन्वय:

हे इन्द्र यं भोजं त्वां वयं हुवेम स त्वमस्माञ्जुहुधि। हे इन्द्र ददिस्त्वमपांसि वाजानविड्ढि। हे इन्द्र त्वं चित्रयोतीयुक्तान् नः कृधि। हे वृषन्निन्द्र त्वन्नो वस्यसः कृधि ॥८॥

पदार्थान्वयभाषाः - (भोजम्) भोक्तारम् (त्वाम्) (इन्द्र) परमैश्वर्ययुक्त (हुवेम) स्वीकुर्याम (ददिः) दाता (त्वम्) (इन्द्र) दुःखविदारक (अपांसि) कर्माणि (वाजान्) बोधान् (अविड्ढि) रक्ष। अत्रावधातोर्वाच्छन्दसीति लोट्सिप्यशादेशः (इन्द्र) शत्रुविनाशक (चित्रया) अनेकविधया (नः) अस्मान् (ऊती) ऊत्या (कृधि) कुरु (वृषन्) सेचक (इन्द्र) सुखप्रद (वस्यसः) अतिशयेन वसीयसो वसुमतः (नः) अस्मान् ॥८॥
भावार्थभाषाः - यथा सखायः सखीन् स्तुवन्ति तथाऽध्येतारोऽध्यापकान् प्रशंसन्तु एवं परस्पररक्षणेनैश्वर्यमुन्नयेयुः ॥८॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - भावार्थ -जसे मित्र मित्रांची स्तुती करतात तसे विद्यार्थ्यांनी अध्यापकांची प्रशंसा करावी व एकमेकांचे रक्षण करून ऐश्वर्य वाढवावे. ॥ ८ ॥