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सास्मा॒ अरं॑ बा॒हुभ्यां॒ यं पि॒ताकृ॑णो॒द्विश्व॑स्मा॒दा ज॒नुषो॒ वेद॑स॒स्परि॑। येना॑ पृथि॒व्यां नि क्रिविं॑ श॒यध्यै॒ वज्रे॑ण ह॒त्व्यवृ॑णक्तुवि॒ष्वणिः॑॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sāsmā aram bāhubhyāṁ yam pitākṛṇod viśvasmād ā januṣo vedasas pari | yenā pṛthivyāṁ ni kriviṁ śayadhyai vajreṇa hatvy avṛṇak tuviṣvaṇiḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सः। अ॒स्मै॒। अर॑म्। बा॒हुऽभ्या॑म्। यम्। पि॒ता। अकृ॑णोत्। विश्व॑स्मात्। आ। ज॒नुषः॑। वेद॑सः। परि॑। येन॑। पृ॒थि॒व्याम्। नि। क्रिवि॑म्। श॒यध्यै॑। वज्रे॑ण। ह॒त्वी। अवृ॑णक्। तु॒वि॒ऽस्वनिः॑॥

ऋग्वेद » मण्डल:2» सूक्त:17» मन्त्र:6 | अष्टक:2» अध्याय:6» वर्ग:20» मन्त्र:1 | मण्डल:2» अनुवाक:2» मन्त्र:6


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्य ! (पिता) सबकी पालना करनेवाला ईश्वर (विश्वस्मात्) सब (जनुषः) प्रसिद्ध (वेदसः) धन वा विज्ञान वा (बाहुभ्याम्) भुजाओं से (यम्) जिसको (अरम्) पूर्ण (अकृणोत्) करता है (सः) वह तू जैसे (तुविष्वणिः) बहुत परमाणुओं का जो कि इकट्ठे होकर एक पदार्थ हो रहे हैं उनका अच्छे प्रकार विभाग करनेवाला सूर्य (येन) जिस (वज्रेण) वज्रसे (पृथिव्याम्) पृथिवी पर (शयध्यै) सोने के लिये अर्थात् गिरने के लिये (क्रिविम्) कूप के समान (हत्वी) छिन्न-भिन्न कर अर्थात् खोदके कूप जलको जैसे निकालें वैसे मेघको (पर्य्यवृणक्) सब ओरसे छिन्न-भिन्न करता और संसार की पालना करता है वैसे (अस्मै) इस बालक आदि के लिये सुख (आ) अच्छे प्रकार सिद्ध करो ॥६॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सूर्य मेघ को छिन्न-भिन्न कर जल को उत्पन्न कर सबका सुख सिद्ध करता है, वैसे अध्यापक वा पिता समस्त सुन्दर शिक्षाओं से सन्तानों को सुभूषित कर निरन्तर सुखी करे ॥६॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे मनुष्य पिता विश्वस्माज्जनुषो वेदसो बाहुभ्यां यमरमकृणोत् स त्वं यथा तुविष्वणिर्येन वज्रेण पृथिव्यां शयध्यै क्रिविमिव हत्वी पर्य्यवृणक् तथाऽस्मै सुखमाकृणोत् ॥६॥

पदार्थान्वयभाषाः - (सः) (अस्मै) (अरम्) अलम् (बाहुभ्याम्) (यम्) (पिता) (अकृणोत्) करोति (विश्वस्मात्) सर्वस्मात् (आ) समन्तात् (जनुषः) प्रसिद्धात् (वेदसः) धनाद्विज्ञानाद्वा (परि) सर्वतः (येन)। अत्राऽन्येषामपीति दीर्घः (पृथिव्याम्) (नि) नितराम् (क्रिविम्) कूपम्। क्रिविरिति कूपना० निघं० ३। २२। (शयध्यै) (वज्रेण) शस्त्रेण (हत्वी) हत्वा (अवृणक्) छिनत्ति (तुविष्वणिः) परमाणूनामेकीभूतानां विभक्ता सूर्यः ॥०६॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सूर्यो मेघं भित्त्वा जलं जनयित्वा सर्वेषां सुखं सम्पादयति तथाऽध्यापको जनको वा सर्वाभिः सुशिक्षाभिः सन्तानान् सुभूषितान् कृत्वा सततं सुखयेत् ॥६॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा सूर्य मेघाला नष्टभ्रष्ट करून जल उत्पन्न करतो व सर्वांना सुख देतो तसे अध्यापक किंवा पिता यांनी चांगल्या शिक्षणाने संतानांना विभूषित करून निरंतर सुखी करावे. ॥ ६ ॥