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अधा॑कृणोः प्रथ॒मं वी॒र्यं॑ म॒हद्यद॒स्याग्रे॒ ब्रह्म॑णा॒ शुष्म॒मैर॑यः। र॒थे॒ष्ठेन॒ हर्य॑श्वेन॒ विच्यु॑ताः॒ प्र जी॒रयः॑ सिस्रते स॒ध्र्य१॒॑क् पृथ॑क्॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

adhākṛṇoḥ prathamaṁ vīryam mahad yad asyāgre brahmaṇā śuṣmam airayaḥ | ratheṣṭhena haryaśvena vicyutāḥ pra jīrayaḥ sisrate sadhryak pṛthak ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अध॑। अ॒कृ॒णोः॒। प्र॒थ॒मम्। वी॒र्य॑म्। म॒हत्। यत्। अ॒स्य॒। अग्रे॑। ब्रह्म॑णा। शुष्म॑म्। ऐर॑यः। र॒थे॒ऽस्थेन॑। हरि॑ऽअश्वेन। विऽच्यु॑ताः। प्र। जी॒रयः॑। सि॒स्र॒ते॒। स॒ध्र्य॑क्। पृथ॑क्॥

ऋग्वेद » मण्डल:2» सूक्त:17» मन्त्र:3 | अष्टक:2» अध्याय:6» वर्ग:19» मन्त्र:3 | मण्डल:2» अनुवाक:2» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब विद्वान् के विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वान् यदि आप (अस्य) इस जगत् के (अग्रे) प्रथम में (महत्) बहुत (वीर्यम्) पराक्रम (अकृणोः) करो कि (यत्) जिससे (ब्रह्मणा) अन्न के योग से (शुष्मम्) बल को (ऐरयः) प्रेरित करो यदि विद्वान् जन (हर्यश्वेन) हर्यश्वरथ अर्थात् हरणशील शीघ्रगामी अश्व जिसमें उस (रथेष्ठेन) रथ में स्थित जन के साथ (विच्युताः) विशेषता से चलायमान (प्रजीरयः) उत्तमता से अवस्था के हरण करनेवाले होते हुए और (सध्र्यक्) जो समान स्थान को प्राप्त होता वह मनुष्य (पृथक्) अलग-अलग (सिस्रते) प्राप्त होते हैं (अध) इसके अनन्तर वह या वे पूर्वोक्त जन शत्रुओं से पराजय को नहीं प्राप्त होते ॥३॥
भावार्थभाषाः - जो इस संसार में सबके बल पराक्रम को बढ़ानेवाले साधनोपसाधनयुक्त अलग-अलग वा मिलकर प्रयत्न करते हैं, वे अन्नादि ऐश्वर्ययुक्त होते हैं ॥३॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ विद्वद्विषयमाह।

अन्वय:

हे विद्वन् यदि त्वमस्याग्रे प्रथमं महद्वीर्यमकृणोः यद्येन ब्रह्मणा शुष्ममैरयः, ये विद्वांसो हर्य्यश्वेन रथेष्ठेन विच्युता प्रजीरयः सन्तो सध्र्यक् पृथक् सिस्रतेऽध ते शत्रुभ्यो पराजयं नाप्नुवन्ति ॥३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अध) आनन्तर्ये (अकृणोः) कुर्य्याः (प्रथमम्) वीर्य्यं पराक्रमम् (महत्) पुष्कलम् (यत्) येन (अस्य) जगतः (अग्रे) आदौ (ब्रह्मणा) अन्नेन (शुष्मम्) बलम् (ऐरयः) ईर्ष्व (रथेष्ठेन) यो रथे तिष्ठति तेन (हर्यश्वेन) हरणशीला अश्वा यस्मिँस्तेन (विच्युताः) विशेषेण चलिताः (प्र) (जीरयः) वयोहर्त्तारः (सिस्रते) सरन्ति (सध्य्रक्) यः सध्रि समानं स्थानं प्राप्नोति सः (पृथक्) ॥३॥
भावार्थभाषाः - य इह सर्वेषां बलपराक्रमवर्द्धकाः साधनोपसाधनयुक्ताः पृथक् मिलित्वा वा प्रयतन्ते ते अन्नाद्यैश्वर्ययुक्ता भवन्ति ॥३॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे या जगात सर्वांचे बल, पराक्रम वर्धित करणाऱ्या साधन-उपसाधनांनी युक्त होऊन, पृथक पृथक किंवा एकत्र मिळून प्रयत्न करतात ते अन्न इत्यादीनी ऐश्वर्ययुक्त होतात. ॥ ३ ॥