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विश्वे॒ ह्य॑स्मै यज॒ताय॑ धृ॒ष्णवे॒ क्रतुं॒ भर॑न्ति वृष॒भाय॒ सश्च॑ते। वृषा॑ यजस्व ह॒विषा॑ वि॒दुष्ट॑रः॒ पिबे॑न्द्र॒ सोमं॑ वृष॒भेण॑ भा॒नुना॑॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

viśve hy asmai yajatāya dhṛṣṇave kratum bharanti vṛṣabhāya saścate | vṛṣā yajasva haviṣā viduṣṭaraḥ pibendra somaṁ vṛṣabheṇa bhānunā ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

विश्वे॑। हि। अ॒स्मै॒। य॒ज॒ताय॑। धृ॒ष्णवे॑। क्रतु॑म्। भर॑न्ति। वृ॒ष॒भाय॑। सश्च॑ते। वृषा॑। य॒ज॒स्व॒। ह॒विषा॑। वि॒दुःऽत॑रः। पिब॑। इ॒न्द्र॒। सोम॑म्। वृ॒ष॒भेण॑। भा॒नुना॑॥

ऋग्वेद » मण्डल:2» सूक्त:16» मन्त्र:4 | अष्टक:2» अध्याय:6» वर्ग:17» मन्त्र:4 | मण्डल:2» अनुवाक:2» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) ऐश्वर्य के इच्छुक (वृषा) शत्रु की शक्ति बाँधनेहारे (विदुष्टरः) अतीव विद्वान् ! आप जो (हि) ही (विश्वे) सर्वत्र (वृषभेण) वर्षा करानेवाले (भानुना) ताप से युक्त सूर्य जैसे रसको वैसे (अस्मै) इस (यजताय) संगम (धृष्णवे) दृढ़ता (वृषभाय) श्रेष्ठता (सश्चते) और सम्बन्ध के लिये (क्रतुम्) प्रज्ञा को (भरन्ति) धारण करते हैं उनके अनुसंगी होते हुए (हविषा) देने लेने योग्य वस्तु से (यजस्व) यज्ञ करो और (सोमम्) ओषध्यादि पदार्थों के रस को (पिब) पिओ ॥४॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो प्रथम से अपनी बुद्धि को उन्नति देकर विद्वानों का सत्कार करते हैं, वे सब जगत् में सत्कारयुक्त होते हैं ॥४॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे इन्द्र वृषा विदुष्टरस्त्वं ये हि विश्वे वृषभेण भानुना युक्तः सूर्यो रसमिवाऽस्मै यजताय धृष्णवे वृषभाय सश्चते क्रतुं भरन्ति तदनुषङ्गी सन् हविषा यजस्व सोमं पिब ॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (विश्वे) सर्वस्मिन् (हि) (अस्मै) (यजताय) सङ्गमनाय (धृष्णवे) दृढत्वाय (क्रतुम्) प्रज्ञाम् (भरन्ति) दधति (वृषभाय) श्रेष्ठत्वाय (सश्चते) सम्बन्धाय (वृषा) परशक्तिबन्धकः (यजस्व) सङ्गच्छस्व (हविषा) दातुं ग्रहीतुं योग्येन (विदुष्टरः) अतिशयेन विद्वान् (पिब) (इन्द्र) ऐश्वर्यमिच्छो (सोमम्) ओषध्यादिरसम् (वृषभेण) वर्षकेण (भानुना) प्रदीप्त्या ॥४॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये प्रथमतः स्वप्रज्ञामुन्नीय विदुषः सत्कुर्वन्ति ते सर्वत्र सत्कृता भवन्ति ॥४॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे सुरुवातीपासून आपल्या बुद्धीची उन्नती करून विद्वानांचा सत्कार करतात ते सर्व जगात सन्मानित होतात. ॥ ४ ॥