विश्वे॒ ह्य॑स्मै यज॒ताय॑ धृ॒ष्णवे॒ क्रतुं॒ भर॑न्ति वृष॒भाय॒ सश्च॑ते। वृषा॑ यजस्व ह॒विषा॑ वि॒दुष्ट॑रः॒ पिबे॑न्द्र॒ सोमं॑ वृष॒भेण॑ भा॒नुना॑॥
viśve hy asmai yajatāya dhṛṣṇave kratum bharanti vṛṣabhāya saścate | vṛṣā yajasva haviṣā viduṣṭaraḥ pibendra somaṁ vṛṣabheṇa bhānunā ||
विश्वे॑। हि। अ॒स्मै॒। य॒ज॒ताय॑। धृ॒ष्णवे॑। क्रतु॑म्। भर॑न्ति। वृ॒ष॒भाय॑। सश्च॑ते। वृषा॑। य॒ज॒स्व॒। ह॒विषा॑। वि॒दुःऽत॑रः। पिब॑। इ॒न्द्र॒। सोम॑म्। वृ॒ष॒भेण॑। भा॒नुना॑॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
स्वामी दयानन्द सरस्वती
पुनस्तमेव विषयमाह।
हे इन्द्र वृषा विदुष्टरस्त्वं ये हि विश्वे वृषभेण भानुना युक्तः सूर्यो रसमिवाऽस्मै यजताय धृष्णवे वृषभाय सश्चते क्रतुं भरन्ति तदनुषङ्गी सन् हविषा यजस्व सोमं पिब ॥४॥