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न क्षो॒णीभ्यां॑ परि॒भ्वे॑ त इन्द्रि॒यं न स॑मु॒द्रैः पर्व॑तैरिन्द्र ते॒ रथः॑। न ते॒ वज्र॒मन्व॑श्नोति॒ कश्च॒न यदा॒शुभिः॒ पत॑सि॒ योज॑ना पु॒रु॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

na kṣoṇībhyām paribhve ta indriyaṁ na samudraiḥ parvatair indra te rathaḥ | na te vajram anv aśnoti kaś cana yad āśubhiḥ patasi yojanā puru ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

न। क्षो॒णीभ्या॑म्। प॒रि॒ऽभ्वे॑। ते॒। इ॒न्द्रि॒यम्। न। स॒मु॒द्रैः। पर्व॑तैः। इ॒न्द्र॒। ते॒। रथः॑। न। ते॒। वज्र॑म्। अनु॑। अ॒श्नो॒ति॒। कः। च॒न। यत्। आ॒शुऽभिः॑। पत॑सि। योज॑ना। पु॒रु॥

ऋग्वेद » मण्डल:2» सूक्त:16» मन्त्र:3 | अष्टक:2» अध्याय:6» वर्ग:17» मन्त्र:3 | मण्डल:2» अनुवाक:2» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब विद्वान् के विषय को इस मन्त्र में कहा गया है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) बिजली के समान वर्त्तमान जिन (ते) आपको (इन्द्रियम्) धन (क्षोणीभ्याम्) आकाश और पृथिवी से (न) नहीं (परिभ्वे) तिरस्कार प्राप्त होता जिन (ते) आपका (समुद्रैः) सागरों और (पर्वतैः) पर्वतों से (रथः) रथ (न) नहीं तिरस्कार को प्राप्त होता जिन (ते) आपका (वज्रम्) छिन्न-भिन्न करनेवाले शस्त्र को (कश्चन) कोई (न, अनु, अश्नोति) नहीं अनुकूलता से व्याप्त होता (यत्) जो (आशुभिः) शीघ्रगमन करानेवाली बिजली के साथ युक्त रथ से (पुरु) बहुत (योजना) योजनों को (पतसि) जाते हैं सो आप सर्वथा विजयी होने योग्य हैं ॥३॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य अग्नि आदि पदार्थों से युक्त शस्त्र-अस्त्र आदि पदार्थों को सिद्ध करते हैं, वे तिरस्कार को नहीं पहुँचते और जो लोग आकाश, समुद्र, तथा पहाड़ी भूमि में भी रथों को चलाते हैं, वे सुख से मार्ग के पार होते हैं ॥३॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ विद्वद्विषयमाह ।

अन्वय:

हे इन्द्र यस्य त इन्द्रियं समुद्रैः क्षोणीभ्यां न परिभ्वे यस्य ते पर्वतै रथो न परिभ्वे यस्य ते वज्रं कश्चन नान्वश्नोति यदाऽऽशुभिस्सह युक्तेन रथेन पुरुयोजना पतसि स त्वं सर्वथा विजयी भवितुमर्हसि ॥३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (न) (क्षोणीभ्याम्) द्यावापृथिवीभ्याम्। क्षोणी इति द्यावापृथिवीना० निघं० ३। ३०। (परिभ्वे) परिभवनीयः (ते) तव (इन्द्रियम्) धनम् (न) निषेधे (समुद्रैः) सागरैः (पर्वतैः) शैलैः (इन्द्र) विद्युदिव वर्त्तमान (ते) तव (रथः) यानम् (न) (ते) तव (वज्रम्) छेदकं शस्त्रम् (अनु) (अश्नोति) व्याप्नोति (कश्चन) (यत्) (आशुभिः) शीघ्रगमयित्रीभिर्विद्युदादिपदार्थैः (पतसि) गच्छसि (योजना) योजनानि (पुरु) पुरूणि बहूनि ॥३॥
भावार्थभाषाः - ये मनुष्या वह्न्यादिपदार्थयुक्तशस्त्राऽस्त्रादीनि साध्नुवन्ति ते परिभवं नाप्नुवन्ति। ये रथानन्तरिक्षे समुद्रे पर्वतयुक्तायामपि भूमौ संगमयन्ति ते सुखेनाध्वानमतियन्ति ॥३॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जी माणसे अग्नी इत्यादी पदार्थांनी शस्त्र, अस्त्र इत्यादी तयार करतात त्यांचा कधी अनादर होत नाही व जे लोक आकाश, समुद्र, पर्वत, भूमीवर रथ (वाहन) चालवितात ते सहजतेने मार्ग काढतात. ॥ ३ ॥