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नू॒नं सा ते॒ प्रति॒ वरं॑ जरि॒त्रे दु॑ही॒यदि॑न्द्र॒ दक्षि॑णा म॒घोनी॑। शिक्षा॑ स्तो॒तृभ्यो॒ माति॑ ध॒ग्भगो॑ नो बृ॒हद्व॑देम वि॒दथे॑ सु॒वीराः॑॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

nūnaṁ sā te prati varaṁ jaritre duhīyad indra dakṣiṇā maghonī | śikṣā stotṛbhyo māti dhag bhago no bṛhad vadema vidathe suvīrāḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

नू॒नम्। सा। ते॒। प्रति॑। वर॑म्। जरि॒त्रे। दु॒ही॒यत्। इ॒न्द्र॒। दक्षि॑णा। म॒घोनी॑। शिक्ष॑। स्तो॒तृऽभ्यः॑। मा। अति॑। ध॒क्। भगः॑। नः॒। बृ॒हत्। व॒दे॒म॒। वि॒दथे॑। सु॒ऽवीराः॑॥

ऋग्वेद » मण्डल:2» सूक्त:15» मन्त्र:10 | अष्टक:2» अध्याय:6» वर्ग:16» मन्त्र:5 | मण्डल:2» अनुवाक:2» मन्त्र:10


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब दान देने के कर्म का विषय अगले मन्त्र में किया है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) दान करनेवाले जन ! (ते) तेरी (मघोनी) प्रशंसित धनयुक्त (दक्षिणा) दक्षिणा और (स्तोतृभ्यः) धार्मिक विद्वानों के लिये (शिक्षा) विद्याग्रहण की सिद्धि करानेवाली शिक्षा (जरित्रे) समस्त विद्याओं की प्रशंसा करनेवाले जन के लिये (प्रतिवरम्) श्रेष्ठ कार्य के प्रति श्रेष्ठ कार्य को (दुहीयत्) पूर्ण करे (सा) वह (नः) हमारा जो (भगः) ऐश्वर्य उसको (मातिधक्) मत नष्ट करे जिससे (सुवीराः) सुन्दर वीरों से युक्त हम लोग (विदथे) यज्ञ में (बृहत्) बहुत (नूनम्) निश्चित (वदेम) कहें ॥१०॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! तुमको उत्तम विद्वानों के लिये अभीष्ट दक्षिणा और विद्यार्थियों के लिये शिक्षा देनी चाहिये, जिससे देने और लेनेवाले फलयुक्त हों ॥१०॥ इस सूक्त में विद्वान्, सूर्य, परमेश्वर, राज्य और दातृकर्म का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ संगति जाननी चाहिये ॥ यह पन्द्रहवाँ सूक्त और सोलहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ दातृकर्मविषयमाह।

अन्वय:

हे इन्द्र ते मघोनी दक्षिणा स्तोतृभ्यः शिक्षा च जरित्रे प्रतिवरं दुहीयत्सा नोऽस्माकं यो भगस्तं मातिधग्यतः सुवीरा वयं विदथे बृहन्नूनं वदेम ॥१०॥

पदार्थान्वयभाषाः - (नूनम्) निश्चितम् (सा) (ते) तव (प्रति) (वरम्) (जरित्रे) सर्वविद्यास्तावकाय (दुहीयत्) दुह्यात्। अत्र व्यत्ययेन परस्मैपदम्। यासुटो ह्रस्वश्च (इन्द्र) दातः (दक्षिणा) (मघोनी) पूजितधनयुक्ता (शिक्षा) विद्याग्रहणसाधिका (स्तोतृभ्यः) धार्मिकेभ्यो विद्वद्भ्यः (मा) (अति) (धक्) दह्यात् (भगः) ऐश्वर्यम् (नः) अस्माकम् (बृहत्) (वदेम) (विदथे) यज्ञे (सुवीराः) शोभनाश्च ते वीरास्तैर्युक्ताः ॥१०॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्या युष्माभिरुत्तमेभ्यो विद्वद्भ्य इष्टा दक्षिणा विद्यार्थिभ्यः शिक्षा च देया येन दातारो ग्रहीतारश्च फलयुक्ताः स्युरिति ॥१०॥। अत्र विद्वत्सूर्यपरमेश्वरराज्यदातृकर्मवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह संगतिर्वेद्या ॥ इति पञ्चदशं सूक्तं षोडशो वर्गश्च समाप्तः॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो! तुम्ही उत्तम विद्वानांना अभीष्ट दक्षिणा व विद्यार्थ्यांना शिक्षण दिले पाहिजे. ज्यामुळे देणारे व घेणारे सफल व्हावेत. ॥ १० ॥