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अध्व॑र्यवः॒ कर्त॑ना श्रु॒ष्टिम॑स्मै॒ वने॒ निपू॑तं॒ वन॒ उन्न॑यध्वम्। जु॒षा॒णो हस्त्य॑म॒भि वा॑वशे व॒ इन्द्रा॑य॒ सोमं॑ मदि॒रं जु॑होत॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

adhvaryavaḥ kartanā śruṣṭim asmai vane nipūtaṁ vana un nayadhvam | juṣāṇo hastyam abhi vāvaśe va indrāya somam madiraṁ juhota ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अध्व॑र्यवः। कर्त॑न। श्रु॒ष्टिम्। अ॒स्मै॒। वने॑। निऽपू॑तम्। वने॑। उत्। न॒य॒ध्व॒म्। जु॒षा॒णः। हस्त्य॑म्। अ॒भि। वा॒व॒शे॒। वः॒। इन्द्रा॑य॒। सोम॑म्। मदि॒रम्। जु॒हो॒त॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:2» सूक्त:14» मन्त्र:9 | अष्टक:2» अध्याय:6» वर्ग:14» मन्त्र:3 | मण्डल:2» अनुवाक:2» मन्त्र:9


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब क्रियाकौशल विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अध्वर्यवः) पुरुषार्थी जनो तुम (अस्मै) इस सभापति के लिये (वने) किरणों में (श्रुष्टिम्) शीघ्र (निपूतम्) निरन्तर पवित्र और दुर्गन्ध वा प्रमादपन से रहित पदार्थ (कर्त्तन) करो (वने) और किरणों में (उन्नयध्वम्) उत्कर्ष देओ जो (हस्त्यम्) हस्तों में उत्तम हुए पदार्थ को (जुषाणः) प्रीति करता वा सेवन करता हुआ (मदिरम्) आनन्द देनेवाले (सोमम्) सोमलतादि रस को (अभि, वावशे) प्रत्यक्ष चाहता (तस्मै) उस सभापति के लिये और (वः) तुम लोगों को (इन्द्राय) ऐश्वर्यवान् जन के लिये उक्त पदार्थ को (जुहोत) देओ ॥९॥
भावार्थभाषाः - जो वैद्य जन सूर्य किरणों से निष्पन्न हुए ओषधि रस को क्रिया से उत्कृष्ट करके आप सेवते तथा औरों के लिये देते हैं, वे शीघ्र अपने कार्य को सिद्ध कर सकते हैं ॥९॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ क्रियाकौशलविषयमाह।

अन्वय:

हे अध्वर्ययो यूयमस्मै वने श्रुष्टिं निपूतं कर्त्तन वन उन्नयध्वं यो हस्त्यं जुषाणो मदिरं सोममभि वावशे तस्मै वो युष्मभ्यमिन्द्राय चैतज्जुहोत ॥९॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अध्वर्यवः) पुरुषार्थिनः (कर्त्तन) कुरुत। अत्राऽन्येषामपीति दीर्घः (श्रुष्टिम्) शीघ्रम् (अस्मै) सभेशाय (वने) किरणेषु (निपूतम्) नितरां पवित्रं दुर्गन्धप्रमादत्वगुणरहितम् (वने) किरणेषु (उत्) (नयध्वम्) उत्कर्षत (जुषाणः) प्रीतः सेवमानो वा (हस्त्यम्) हस्तेषु साधुम् (अभि) आभिमुख्ये (वावशे) भृशं कामयते (वः) युष्माकम् (इन्द्राय) (सोमम्) सोमलतादिरसम् (मदिरम्) आनन्दप्रदम् (जुहोत) दत्त ॥९॥
भावार्थभाषाः - ये वैद्याः सूर्यकिरणैर्निष्पन्नमोषधिरसं क्रिययोत्कृष्टं कृत्वा स्वयं सेवन्तेऽन्येभ्यः प्रयच्छन्ति च ते सद्यः स्वकार्यं साद्धुं शक्नुवन्ति ॥९॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे वैद्य लोक सूर्यकिरणांनी निष्पन्न झालेली रसक्रिया उत्कृष्ट करून स्वतः घेतात व इतरांनाही देतात ते आपले कार्य सिद्ध करू शकतात. ॥ ९ ॥