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प्र॒जाभ्यः॑ पु॒ष्टिं वि॒भज॑न्त आसते र॒यिमि॑व पृ॒ष्ठं प्र॒भव॑न्तमाय॒ते। असि॑न्व॒न्दंष्ट्रैः॑ पि॒तुर॑त्ति॒ भोज॑नं॒ यस्ताकृ॑णोः प्रथ॒मं सास्यु॒क्थ्यः॑॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

prajābhyaḥ puṣṭiṁ vibhajanta āsate rayim iva pṛṣṭham prabhavantam āyate | asinvan daṁṣṭraiḥ pitur atti bhojanaṁ yas tākṛṇoḥ prathamaṁ sāsy ukthyaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प्र॒ऽजाभ्यः॑। पु॒ष्टिम्। वि॒ऽभज॑न्तः। आ॒स॒ते॒। र॒यिम्ऽइ॑व। पृ॒ष्ठम्। प्र॒ऽभव॑न्तम्। आ॒ऽय॒ते। असि॑न्वन्। दंष्ट्रैः॑। पि॒तुः। अ॒त्ति॒। भोज॑नम्। यः। ता। अकृ॑णोः। प्र॒थ॒मम्। सः। अ॒सि॒। उ॒क्थ्यः॑॥

ऋग्वेद » मण्डल:2» सूक्त:13» मन्त्र:4 | अष्टक:2» अध्याय:6» वर्ग:10» मन्त्र:4 | मण्डल:2» अनुवाक:2» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब विद्वानों के विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - जो (प्रजाभ्यः) प्रजाजनों के लिये (पुष्टिम्) पुष्टि के योग्य पदार्थों को (विभजन्तः) विविध प्रकार से सेवन करते हुए जन (आयते) समीप प्राप्त हुए जिज्ञासु जन के लिये (प्रभवन्तम्) उत्पद्यमान (पृष्ठम्) आधार को (रयिमिव) धन के समान (असिन्वन्) बाँधते और (आसते) स्थिर होते हैं उनके साथ (यः) जो (दंष्ट्रैः) दन्तों से (पितुः) अन्न (भोजनम्) भोजन के योग्य पदार्थ को (अत्ति) भक्षण करते हैं (सः) वह आप (उक्थ्यः) कहने योग्य जनों में प्रसिद्ध (असि) हैं ॥४॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य दूसरे मनुष्यों की विद्या और धन की वृद्धि के लिये बद्धपरिकर अर्थात् कटिबद्ध होते हैं, वे सुखी होते हुए प्रशंसनीय हैं ॥४॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ विद्वद्विषयमाह।

अन्वय:

ये प्रजाभ्यः पुष्टिं विभजन्त आयते प्रभवन्तं पृष्ठं रयिमिवाऽसिन्वन्नासते तैस्सह यो दंष्ट्रैः पितुर्भोजनमत्ति ता प्रथममकृणोः स त्वमुक्थ्योऽसि ॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (प्रजाभ्यः) (पुष्टिम्) पोषणार्हान् पदार्थान् (विभजन्तः) विविधतया सेवमानाः (आसते) उपविष्टाः सन्ति (रयिमिव) श्रियमिव (पृष्ठम्) आधारम् (प्रभवन्तम्) उत्पद्यमानम् (आयते) समीपं प्राप्नुवते (असिन्वन्) बध्नन्ति (दंष्ट्रैः) दद्भिः (पितुः) अन्नम् (अत्ति) भक्षयति (भोजनम्) भक्षनीयं वस्तु (यः) (ता) (अकृणोः) (प्रथमम्) (सः) (असि) (उक्थ्यः) ॥४॥
भावार्थभाषाः - ये मनुष्या मनुष्याणां विद्याधनवृद्धये बद्धपरिकराः स्युस्ते सुखिनः सन्तः प्रशंसनीया भवेयुः ॥४॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - भावार्थ -जी माणसे दुसऱ्या माणसांची विद्या व धन यांच्या वृद्धीसाठी बद्धपरिकर असतात ती सुखी होतात व प्रशंसनीय ठरतात. ॥ ४ ॥