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ज्ञे॒या भा॒गं स॑हसा॒नो वरे॑ण॒ त्वादू॑तासो मनु॒वद्व॑देम। अनू॑नम॒ग्निं जु॒ह्वा॑ वच॒स्या म॑धु॒पृचं॑ धन॒सा जो॑हवीमि॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

jñeyā bhāgaṁ sahasāno vareṇa tvādūtāso manuvad vadema | anūnam agniṁ juhvā vacasyā madhupṛcaṁ dhanasā johavīmi ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ज्ञे॒याः। भा॒गम्। स॒ह॒सा॒नः। वरे॑ण। त्वाऽदू॑तासः। म॒नु॒ऽवत्। व॒दे॒म॒। अनू॑नम्। अ॒ग्निम्। जु॒ह्वा॑। व॒च॒स्या। म॒धु॒ऽपृच॑म्। ध॒न॒ऽसाः। जो॒ह॒वी॒मि॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:2» सूक्त:10» मन्त्र:6 | अष्टक:2» अध्याय:6» वर्ग:2» मन्त्र:6 | मण्डल:2» अनुवाक:1» मन्त्र:6


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् ! (वरेण) श्रेष्ठ व्यवहार से (भागम्) सेवने योग्य पदार्थ को (सहसानः) सहते हुए आप जैसे मैं (वचस्या) वचनों में और (जुह्वा) ग्रहण करने में उत्तम क्रिया से (मधुपृचम्) मधुरादि पदार्थ सम्बन्धी (अनूनम्) बहुत (अग्निम्) अग्नि को (जोहवीमि) निरन्तर स्वीकार करता हूँ वैसे तुम ग्रहण करो जैसे (त्वादूतासः) तुम जिन महात्माओं के दूत हो (ज्ञेयाः) वे जानने योग्य (धनसाः) धनादि पदार्थों का विभाग करनेवाले विद्वान् जन (मनुवत्) विद्वान् के समान इसको उपदेश करें, वैसे इसको हम लोग भी (वदेम) कहें ॥६॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे आप्त विद्वान् जन अग्न्यादि पदार्थविद्या को जानकर औरों के हित के लिये उपदेश करते हैं, वैसे हमलोग भी विद्या का उपदेश करें ॥६॥ इस सूक्त में अग्नि और विद्वान् के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति समझनी चाहिये ॥ यह दसवाँ सूक्त और दूसरा वर्ग समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे विद्वन् वरेण भागं सहमानस्त्वं यथाऽहं वचस्या जुह्वा मधुपृचमनूनमग्निं जोहवीमि तथा त्वं गृहाण यथा त्वादूतासो ज्ञेया धनसा विद्वांसो मनुवद्वदेत्तमुपदिशेयुस्तथैतं वयमपि वदेम ॥६॥

पदार्थान्वयभाषाः - (ज्ञेयाः) ज्ञातुं योग्याः (भागम्) भजनीयम् (सहसानः) सहमानः (वरेण) श्रेष्ठेन (त्वादूतासः) त्वं दूतो येषान्ते (मनुवत्) विद्वद्वत् (वदेम) उपदिशेम (अनूनम्) ऊनतारहितम् (अग्निम्) पावकम् (जुह्वा) ग्रहणसाधनया क्रियया (वचस्या) वचनैः सुसाध्या (मधुपृचम्) मधुरादिसम्बन्धिनम् (धनसाः) ये धनानि सनन्ति विभजन्ति ते (जोहवीमि) भृशं स्वीकरोमि ॥६॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यथाप्ता विद्वांसोऽग्न्यादिपदार्थविद्यां विदित्वाऽन्येषां हितायोपदिशन्ति तथा वयमप्येतद्विद्यामुपदिशेम ॥६॥ अत्राग्निविद्वद्गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति दशमं सूक्तं द्वितीयो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जसे आप्त विद्वान लोक अग्नी इत्यादी पदार्थविद्या जाणून इतरांच्या हितासाठी उपदेश करतात तसा आम्हीही उपदेश करावा. ॥ ६ ॥