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आ वि॒श्वतः॑ प्र॒त्यञ्चं॑ जिघर्म्यर॒क्षसा॒ मन॑सा॒ तज्जु॑षेत। मर्य॑श्रीः स्पृह॒यद्व॑र्णो अ॒ग्निर्नाभि॒मृशे॑ त॒न्वा॒३॒॑ जर्भु॑राणः॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ā viśvataḥ pratyañcaṁ jigharmy arakṣasā manasā taj juṣeta | maryaśrīḥ spṛhayadvarṇo agnir nābhimṛśe tanvā jarbhurāṇaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ। वि॒श्वतः॑। प्र॒त्यञ्च॑म्। जि॒घ॒र्मि॒। अ॒र॒क्षसा॑। मन॑सा। तत्। जु॒षे॒त॒। मर्य॑ऽश्रीः। स्पृ॒ह॒यत्ऽव॑र्णः। अ॒ग्निः। न। अ॒भि॒ऽमृशे॑। त॒न्वा॑। जर्भु॑राणः॥

ऋग्वेद » मण्डल:2» सूक्त:10» मन्त्र:5 | अष्टक:2» अध्याय:6» वर्ग:2» मन्त्र:5 | मण्डल:2» अनुवाक:1» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वान् ! आप जैसे मैं (अरक्षसा) उत्तम भाव से वा (मनसाः) विज्ञान से जिस (प्रत्यञ्चम्) प्रत्येक पदार्थ को प्राप्त होते हुए अग्नि को (विश्वतः) सबओर से (आ,जिघर्मि) अच्छे प्रकार प्रदीप्त करता हूँ और (मर्यश्रीः) जिससे मरणधर्मा प्राणियों की शोभा और जो (स्पृहयद्वर्णः) कांक्षा सी करता हुआ जिसका वर्ण (तन्वा) विस्तृत शरीर से (जर्भुराणः) निरन्तर पदार्थों को धारण करता हुआ (अग्निः) अग्नि विद्यमान है (तत्) उसको (न,अभिमृशे) आगे नहीं सह सकता हूँ, वैसे इसका (जुषेत) सेवन करो ॥५॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो शुद्धान्तःकरण जन सुन्दर शोभा करनेवाले और घृतादि आहुतियों के ग्राहक, सबके धारण करनेवाले, सब रूपों के प्रकाशक और न सहने योग्य अग्नि को सिद्ध करते हैं, वे श्रीमान् होते हैं ॥५॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे विद्वन् भवान् यथाऽहमरक्षसा मनसा यं प्रत्यञ्चं विश्वत आजिघर्मि यो मर्यश्रीः स्पृहयद्वर्णस्तन्वाजर्भुराणोऽग्निरस्ति तत्तं नाभिमृशे तथा जुषेत ॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (आ) समन्तात् (विश्वतः) सर्वतः (प्रत्यञ्चम्) प्रत्यञ्चन्तम् (जिघर्मि) (अरक्षसा) अदुष्टभावेन (मनसा) विज्ञानेन (तत्) तम् (जुषेत) सेवेत (मर्यश्रीः) मर्याणां श्रीः शोभा यस्मात् सः (स्पृहयद्वर्णः) स्पृहयन् वर्णो यस्य सः (अग्निः) पावकः (न) निषेधे (अभिमृशे) अभिसहे (तन्वा) (जर्भुराणः) भृशं धरन् ॥५॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये शुद्धान्तःकरणाः सुशोभयितारं घृताद्याहुतं सर्वस्य धर्त्तारं सर्वरूपप्रकाशकमसोढव्यमग्निं साध्नुवन्ति ते श्रीमन्तो जायन्ते ॥५॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे शुद्ध अंतःकरणाचे लोक, सुशोभित करणारा, घृत इत्यादी आहुती स्वीकारणारा, सर्वांना धारण करणारा, सर्व रूपाचा प्रकाशक व असहनीय अशा अग्नीला सिद्ध करतात, ते श्रीमंत होतात. ॥ ५ ॥