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त्वम॑ग्न॒ इन्द्रो॑ वृष॒भः स॒ताम॑सि॒ त्वं विष्णु॑रुरुगा॒यो न॑म॒स्यः॑ । त्वं ब्र॒ह्मा र॑यि॒विद्ब्र॑ह्मणस्पते॒ त्वं वि॑धर्तः सचसे॒ पुरं॑ध्या॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tvam agna indro vṛṣabhaḥ satām asi tvaṁ viṣṇur urugāyo namasyaḥ | tvam brahmā rayivid brahmaṇas pate tvaṁ vidhartaḥ sacase puraṁdhyā ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

त्वम्। अ॒ग्ने॒। इन्द्रः॑। वृ॒ष॒भः। स॒ताम्। अ॒सि॒। त्वम्। विष्णुः॑। उ॒रु॒ऽगा॒यः। न॒म॒स्यः॑। त्वम्। ब्र॒ह्मा। र॒यि॒ऽवित्। ब्र॒ह्म॒णः॒। प॒ते॒। त्वम्। वि॒ध॒र्त॒रिति॑ विऽधर्तः। स॒च॒से॒। पुर॑म्ऽध्या॥

ऋग्वेद » मण्डल:2» सूक्त:1» मन्त्र:3 | अष्टक:2» अध्याय:5» वर्ग:17» मन्त्र:3 | मण्डल:2» अनुवाक:1» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) सूर्य के समान वर्त्तमान ! (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् (वृषभः) दुष्टों के सामर्थ्य को विनाशनेवाले (त्वम्) आप (सताम्) सत्पुरुषों के बीच (नमस्यः)सत्कार करने योग्य (असि) हैं, (विष्णु) जगदीश्वर के समान (त्वम्) आप सज्जनों में (उरुगायः) बहुतों से कीर्त्तन किये हुए हैं। हे (ब्रह्मणस्पते) वेदविद्या का प्रचार करनेवाले ! जो (त्वम्) आप (रयिवित्) पदार्थविद्या के जानने (ब्रह्मा) समस्त वेद के पढ़नेवाले हैं। हे (विधर्त्तः) जो नाना प्रकार के शुभ गुणों को धारण करनेवाले (त्वम्) आप (पुरन्ध्या) पूर्ण विद्या के धारण करनेवाली स्त्री उसके साथ (सचसे) सम्बन्ध करते हैं ॥३॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य ब्रह्मचर्य से आप्त विद्वानों के समीप से विद्या शिक्षा को प्राप्त हुआ ईश्वर के समान उपकारदृष्टि से प्रशंसा और सत्कार को प्राप्त हुआ प्रतिदिन उत्तम बुद्धि से समस्त शुभ गुण, कर्म और स्वभावों को धारण करता है, वह सम्पूर्ण विद्यावान् होता है ॥३॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे अग्ने इन्द्रो वृषभस्त्वं सतां नमस्योऽसि विष्णुस्त्वं सतामुरुगायोऽसि हे ब्रह्मणस्पते यस्त्वं रयिविद्ब्रह्माऽसि। हे विधर्त्तस्त्वं पुरन्ध्या सचसे ॥३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (त्वम्) (अग्ने) सूर्य्यवद्वर्त्तमान (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् (वृषभः) दुष्टसामर्थ्यहन्ता (सताम्) सत्पुरुषाणां मध्ये (असि) (त्वम्) (विष्णुः) जगदीश्वरवत् (उरुगायः) बहुभिः स्तुतः (नमस्यः) सत्कर्त्तुमर्हः (त्वम्) (ब्रह्मा) अखिलवेदाऽध्येता (रयिवित्) पदार्थविद्यायुक्तः (ब्रह्मणस्पते) वेदविद्याप्रचारक (त्वम्) (विधर्त्तः) यो विविधान् शुभान् गुणान् धरति तत्सम्बुद्वौ (सचसे) सह वर्त्तसे (पुरन्ध्या) पुरं पूर्णां विद्यां ध्यायति या तया सह ॥३॥
भावार्थभाषाः - यो मनुष्यो ब्रह्मचर्येणाऽप्तानां विदुषां सकाशात् प्राप्तविद्याशिक्ष ईश्वरवत्सर्वोपकारतया प्राप्तप्रशंसासत्कारः प्रत्यहं प्रज्ञया सर्वान् शुभगुणकर्मस्वभावान् धरति सोऽलंविद्यो भवति ॥३॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जो माणूस ब्रह्मचर्यपूर्वक आप्तविद्वानांकडून विद्या व शिक्षण प्राप्त करतो, ईश्वराप्रमाणे उपकारबुद्धीने वागतो व प्रशंसा आणि सत्कार प्राप्त करतो, प्रत्येक दिवशी उत्तम बुद्धीने संपूर्ण शुभ गुण, कर्म, स्वभाव धारण करतो तो संपूर्ण विद्यायुक्त असतो. ॥ ३ ॥