पदार्थान्वयभाषाः - (सः) वह (त्रितः) तीन-स्थूल सूक्ष्म कारणशरीरों में वर्तमान आत्मा (यतिः) इन्द्रियों का स्वामी (तुवीरवम्) बहुत शब्दकारी-याचनारूप पुनः-पुनः शब्द करनेवाले (दासम्) उपक्षयकारी कामभाव (षळक्षम्) पाँच नेत्रादि इन्द्रिय और एक मन व्यक्त करने के साधन जिसके हैं, उस ऐसे (त्रिशीर्षाणम्) तीन-लोभ राग मोह शिर के समान जिसके हैं, उस ऐसे को (इत्) ही (दन्-दमन्यत्) दमन करता हुआ दमन करता है (अस्य) यह आत्मा (ओजसा) स्वात्मबल से (वृधानः) बढ़ता हुआ (विपा) मेधा से तथा वेदवाणी से (अयो अग्रया) छुरे की तीक्ष्ण धारा के समान जैसे (वराहं-नु-अहन्) निकृष्टभोजी शूकर के सदृश उस कामभाव को नष्ट करता है अथवा वर-आहार-श्रेष्ठ-आहार जिससे प्राप्त होता है, उस परमात्मा को प्राप्त होता है ॥६॥
भावार्थभाषाः - स्थूल सूक्ष्म कारण शरीरों को प्राप्त होनेवाला आत्मा इन्द्रियों और मन से व्यक्त होनेवाले लोभ, राग, मोहपरायण, निकृष्टभोजी, शूकर की भाँति कामभाव को दमन करता हुआ, वश करता हुआ नष्ट करता है तथा कामभाव को नष्ट करके परमात्मा को प्राप्त करता है ॥६॥