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स य॒ह्व्यो॒३॒॑ऽवनी॒र्गोष्वर्वा जु॑होति प्रध॒न्या॑सु॒ सस्रि॑: । अ॒पादो॒ यत्र॒ युज्या॑सोऽर॒था द्रो॒ण्य॑श्वास॒ ईर॑ते घृ॒तं वाः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sa yahvyo vanīr goṣv arvā juhoti pradhanyāsu sasriḥ | apādo yatra yujyāso rathā droṇyaśvāsa īrate ghṛtaṁ vāḥ ||

पद पाठ

सः । य॒ह्व्यः॑ । अ॒वनीः॑ । गोषु॑ । अर्वा॑ । आ । जु॒हो॒ति॒ । प्र॒ऽध॒न्या॑सु । सस्रिः॑ । अ॒पादः॑ । यत्र॑ । युज्या॑सः । अ॒र॒थाः । द्रो॒णिऽअ॑श्वासः । ईर॑ते । घृ॒तम् । वाः ॥ १०.९९.४

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:99» मन्त्र:4 | अष्टक:8» अध्याय:5» वर्ग:14» मन्त्र:4 | मण्डल:10» अनुवाक:8» मन्त्र:4


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (सः) वह (अर्वा) सर्वत्र प्रगतिकर्ता (यह्व्यः) बहुत प्रकार की (अवनीः) अन्तःस्थलियों वासनाओं को (गोषु) स्तुतिवाणियों में (जुहोति) डालता है (प्रधन्यासु) प्रकृष्ट मोक्षधन प्राप्त किया जाता है जिसके द्वारा, उन उपासनाओं में (सस्रिः) शयन करनेवाला रमण करनेवाला (यत्र) जिस परमात्मा में (अपादः) पादरहित-कर्मेन्द्रियव्यवहाररहित (अरथाः) विषयों में रमण करनेवाली इन्द्रियवृत्तियों से रहित (द्रोण्यश्वासः) अन्तःकरण-वृत्तियाँ व्यापनेवाली जिनकी हैं, वे उपासक (वाः) वरणीय (घृतम्) ब्रह्मतेजरस को (ईरते) प्राप्त करते हैं ॥४॥
भावार्थभाषाः - उपासक आत्मा अनेक आन्तरिक वासनाओं को परमात्मा की स्तुतियों में विलीन कर देता है और जिनसे प्रकृष्ट मोक्षधन प्राप्त होता है, उन उपासनाओं के अन्दर रमण करनेवाला हो जाता है। वह परमात्मा का सच्चा उपासक, जो परमात्मा के ध्यान में कर्मेन्द्रियों के व्यवहारों से रहित विषयों में जानेवाली ज्ञानेन्द्रियों की वृत्तियों से रहित होकर व्यापनेवाली अन्तःकरणवृत्तियों में अन्तर्मुख उपासक वरणीय ब्रह्म तेज को प्राप्त करते हैं ॥४॥
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (सः-अर्वा यह्व्यः-अवनीः-गोषु जुहोति) सोऽप्रत्यृतः सर्वत्र प्रगतिकर्ता बहुविधाः-अन्तस्थलीर्वासनाः स्तुतिवाक्षु क्षिपति (प्रधन्यासु सस्रिः) प्रकृष्टधनं मोक्षधनं प्राप्यते याभिस्तासूपासनासु शयनशीलो भवति “षस स्वप्ने” [अदादि०] ततः क्रिन् प्रत्ययो बाहुलकादौणादिकः (यत्र) यस्मिन् परमात्मनि (अपादः-अरथाः-द्रोण्यश्वासः) पादरहिता कर्मेन्द्रियव्यवहाररहिता-विषयेषु रमणं ज्ञानेन्द्रियवृत्तिरहिताः द्रोण्योऽन्तःकरणवृत्तयो व्यापिन्यो येषां ते-उपासकाः (वाः-घृतम्-ईरते) वरणीयं ब्रह्मतेजो रसं प्राप्नुवन्ति ॥४॥