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ते सो॒मादो॒ हरी॒ इन्द्र॑स्य निंसतें॒ऽशुं दु॒हन्तो॒ अध्या॑सते॒ गवि॑ । तेभि॑र्दु॒ग्धं प॑पि॒वान्त्सो॒म्यं मध्विन्द्रो॑ वर्धते॒ प्रथ॑ते वृषा॒यते॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

te somādo harī indrasya niṁsate ṁśuṁ duhanto adhy āsate gavi | tebhir dugdham papivān somyam madhv indro vardhate prathate vṛṣāyate ||

पद पाठ

ते । सो॒म॒ऽअदः॑ । हरी॒ इति॑ । इन्द्र॑स्य । निं॒स॒ते॒ । अं॒शुम् । दु॒हन्तः॑ । अधि॑ । आ॒स॒ते॒ । गवि॑ । तेभिः॑ । दु॒ग्धम् । प॒पि॒ऽवान् । सो॒म्यम् । मधु॑ । इन्द्रः॑ । व॒र्ध॒ते॒ । प्रथ॑ते । वृ॒ष॒ऽयते॑ ॥ १०.९४.९

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:94» मन्त्र:9 | अष्टक:8» अध्याय:4» वर्ग:30» मन्त्र:4 | मण्डल:10» अनुवाक:8» मन्त्र:9


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (ते सोमादः) वे विद्वान् शान्त परमात्मा के आनन्दरस तथा सोमरस भोगने पीनेवाले (अंशुं दुहन्तः) उस आनन्दप्रवाह को या रस को निकालते हुए योगभूमि पर या गोचर्म पर साधिकार बैठते हैं (तेभिः-दुग्धम्) उनके द्वारा निकाला हुआ (सोम्यं मधु) परमात्मसम्बन्धी अथवा सोमसम्बन्धी रस को (इन्द्रः पपिवान्) आत्मा पी लेता है, पीकर वह (वर्धते) बढ़ता है (प्रथते) विस्तृत होता है (वृषायते) बलवान् होता है (इन्द्रस्य हरी निंसते) उस आत्मा के दुःखापहरण और सुखाहरण करनेवाले ज्ञान कर्म को सब प्राण प्राप्त होते हैं, अपने में धारण करते हैं ॥९॥
भावार्थभाषाः - परमात्मा के आनन्दरस को भोगनेवाले विद्वान् योगभूमि में स्थिर होकर उस आनन्दरस को निर्झरित करते हैं, इनके द्वारा अन्य जन भी लाभ लेते हैं, आत्मा उस आनन्दरस का पान करके हर्षित, विकसित और बलिष्ठ हो जाता है, पुनः उसके ज्ञान और कर्म दुःखनाशक सुखकारक हो जाते हैं, जिन्हें उसके प्राण-इन्द्रियाँ प्राप्त करती हैं। एवम् सोमरस का पान करनेवाले शुद्ध भूमि पर विराजमान होकर सोमरस निकालते हैं, जिसे वे स्वयं भी पान करते हैं, अन्य जन भी करते हैं, पीकर हृष्ट पुष्ट और बलिष्ठ बन जाते हैं और उसके ज्ञान और कर्म दुःख दूर करनेवाले और सुख प्राप्त करानेवाले बन जाते हैं, उन्हें प्राण इन्द्रियाँ प्राप्त करती हैं ॥९॥
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (ते सोमादः) ते विद्वांसः शान्तपरमात्मानन्दस्य यद्वा सोमरसस्य भोक्तारः पातारो वा (अंशुम् दुहन्तः) तमानन्दप्रवाहं यद्वा रसप्रवाहं निस्सारयन्तो (गवि-अधि आसते) योगभूमौ यद्वा गो चर्मणि साधिकारमातिष्ठन्ति (तेभिः-दुग्धम्) तैर्निस्सारितमानन्दरसं (सोम्यं मधु) सोम-सम्बन्धिनं मधुरं (इन्द्रः पपिवान्) आत्मा पीतवान् (वर्धते) प्रवर्धते (प्रथते) प्रथितो भवति (वृषायते) वृषैव बलवान् भवति (इन्द्रस्य हरी निंसते) तस्यात्मनो दुःखापहरणसुखापहरणे ज्ञानकर्मणी-प्राणाः प्राप्नुवन्ति स्वस्मिन् धारयन्ति ॥९॥