पदार्थान्वयभाषाः - (यत्) जब (देवाः) सृष्टि के आरम्भ में वेदप्रकाशक परमर्षि अग्न्यादि महानुभाव (पुरुषेण हविषा) अपने आत्मा में धारण करने योग्य परमात्मा द्वारा (यज्ञम्-अतन्वत) मानस यज्ञ को सेवन करते हैं (अस्य) तो इस यज्ञ का (वसन्तः-आज्यम्) वसन्त ऋतु घृत (आसीत्) होता है, वसन्त में ओषधियाँ उत्पन्न होती हैं, अतः अध्यात्मयज्ञ को प्रबोधित करने के लिये वह घृतसमान है (ग्रीष्मः-इध्मः) ग्रीष्म ऋतु इन्धन होता है, क्योंकि ग्रीष्म में वनस्पतियाँ बढ़ती हैं, अतः वह इन्धन के समान है (शरत्-हविः) शरद् ऋतु हव्य द्रव्य होता है, शरद् ऋतु में वनस्पतियाँ समृद्ध पुष्ट होती हैं, इसलिए अध्यात्मयज्ञ की समृद्धि का कारण शरद् ऋतु है ॥६॥
भावार्थभाषाः - आदि सृष्टि में वेदप्रकाशक ऋषि अध्यात्मयज्ञ का अनुष्ठान करते हैं। अपने आत्मा में धारण करने योग्य परमात्मा के द्वारा उसका रचा वसन्तऋतु घृतसमान होकर अध्यात्मयज्ञ को प्रबोधित करता है, भिन्न-भिन्न ओषधियों के उत्पन्न होने से परमात्मा है, इस भाव जागृत करता है, पुनः ग्रीष्म ऋतु इसकी समिधा इन्धन बन जाता है, क्योंकि ग्रीष्म ऋतु में ओषधियाँ बढ़ती हैं, तो परमात्मा की आस्तिकता में दृढ़ता आ जाती है, पुनः शरद् ऋतु उसका हव्यपदार्थ हो जाता है, क्योंकि शरद् ऋतु में ओषधियाँ पुष्ट होती हैं, अतः परमात्मा का साक्षात् होने का निमित्त बन जाता है ॥६॥