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परा॒ ही॑न्द्र॒ धाव॑सि वृ॒षाक॑पे॒रति॒ व्यथि॑: । नो अह॒ प्र वि॑न्दस्य॒न्यत्र॒ सोम॑पीतये॒ विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

parā hīndra dhāvasi vṛṣākaper ati vyathiḥ | no aha pra vindasy anyatra somapītaye viśvasmād indra uttaraḥ ||

पद पाठ

परा॑ । हि । इ॒न्द्र॒ । धाव॑सि । वृ॒षाक॑पेः । अति॑ । व्यथिः॑ । नो इति॑ । अह॑ । प्र । वि॒न्द॒सि॒ । अ॒न्यत्र॑ । सोम॑ऽपीतये । विश्व॑स्मात् । इन्द्रः॑ । उत्ऽत॑रः ॥ १०.८६.२

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:86» मन्त्र:2 | अष्टक:8» अध्याय:4» वर्ग:1» मन्त्र:2 | मण्डल:10» अनुवाक:7» मन्त्र:2


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे उत्तर ध्रुव ! हे मेरे पति ! तू (वृषाकपेः) वृषाकपि सूर्य के लिये (अति व्यथिः) अत्यन्त व्यथित हुआ (परा धावसि) मुझ व्योमकक्षा से परे जा रहा है (अह-अन्यत्र) आश्चर्य है, अन्य समय में भी (सोमपीतये) सोमपीति-गृहस्थतृप्ति के निमित्त (न-उ प्र विन्दसि) नहीं मुझे प्राप्त करता है ॥२॥
भावार्थभाषाः - ज्योतिर्विद्या की दृष्टि से ध्रुवप्रचलन होता है, जो व्योमकक्षा से प्रतिलोम गति करता है, इसलिये आलंकारिक ढंग से व्योमकक्षा से परे हटता हुआ होने से वह उपालम्भ सा दे रही है कि सूर्यादि को लिये हुए ध्रुव  व्योमकक्षा से परे हटता है ॥२॥
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र वृषाकपेः-अति व्यथिः) हे इन्द्र ! उत्तरध्रुव ! मम पते ! त्वं वृषाकपये सूर्याय “चतुर्थ्यर्थे बहुलं छन्दसि” [अष्टा० २।३।६२] इति षष्ठी, अतिव्यथितः सन् (परा धावसि) मम सकाशात्-व्योमकक्षातः परा गच्छसि (अह-अन्यत्र सोमपीतये न-उ प्र विन्दसि) आश्चर्यमन्यत्र समयेऽपि सोमपीतिनिमित्तं नैव मां प्राप्नोषि ॥२॥