पदार्थान्वयभाषाः - (वृषभः-न तिग्मशृङ्गः) जैसे तीक्ष्ण शृङ्गवाला वृषभ-साँड (यूथेषु-अन्तः-रोरुवत्) गोसमूहों के अन्दर बहुत शब्द करता है, तथा वैसे (इन्द्र) हे उत्तरध्रुव ! तू खगोल के पिण्डों में मानो अपना घोष करता है (ते मन्थः) तेरा मन्थन व्यापार पिण्डों को आन्दोलित करने का (हृदे शम्) हृदय के लिये कल्याणकारी हो (तं यं भावयुः-सुनोति) उस जिस पुत्र को आत्मभाव चाहनेवाली अपनानेवाली इन्द्राणी उत्पन्न करती है (न सः-ईशे) वह नहीं स्वामित्व करता है, न ही गृहस्थभाव को प्राप्त है (यस्य कपृत्) जिसका सुख देनेवाला अङ्ग (सक्थ्या-अन्तरा लम्बते) दोनों सांथलों जङ्घाओं के मध्य में लम्बित होता है (स-इत्-ईशे) वह ही गृहस्थ कर्म पर अधिकार करता है (यस्य निषेदुषः) जिस निकट शयन करते हुए का (रोमशं विजृम्भते) रोमोंवाला अङ्ग विजृम्भन करता है-फड़कता है (न सः-ईशे) वह गृहस्थ कर्म पर अधिकार नहीं करता है (यस्य निषेदुषः-रोमशं विजृम्भते) जिसके निकट शयन किये हुए रोमोंवाला अङ्ग फड़कता है (सः-इत्-ईशे) वह ही गृहस्थकर्म पर अधिकार रखता है (यस्य सक्थ्या-अन्तरा कपृत्-लम्बते) जिसके निकट शयन करने पर सांथलों-जङ्घाओं के बीच में सुखदायक अङ्ग विजृम्भित होता है, वह ही गृहस्थकर्म पर अधिकार करता है ॥१५-१७॥
भावार्थभाषाः - रोमवाले अङ्ग का फड़फड़ाना सुखप्रद अङ्ग का सांथलों-योनिमध्य में अवलम्बित होना गृहस्थकर्म पर अधिकार कराता है ॥१५-१७॥