पदार्थान्वयभाषाः - (देव) हे सोम चन्द्रमा ! (यत् त्वा) जो तूझे (प्रपिबन्ति) सूर्यकिरणें कृष्णपक्ष में कला द्वारा अपने अन्दर विलोप या विलीन करती हैं (ततः-पुनः-आप्यायसे) फिर तू शुक्लपक्ष में अपनी कलाओं से बढ़ता है, पूर्ण हो जाता है, कारण कि (वायुः सोमस्य रक्षिता) प्रवहनामक वायु जिसके आश्रय पर चन्द्रमा आकाश में ठहरता है, परिधिरूप में आकाश में घूमता है, वह वायु रक्षक है (समानां-मासः-आकृतिः) वसन्तादि ऋतुओं के मास का प्रकट करनेवाला है ॥५॥
भावार्थभाषाः - जैसे-जैसे चन्द्रमा पूर्व दिशा में सूर्य की ओर बढ़ता जाता है, वैसे-वैसे सूर्यकिरणों से कृष्णपक्ष में विलीन होने लगता है और शुक्लपक्ष में जैसे अलग होता है, फिर बढ़ता चला जाता है, पूर्ण हो जाता है, इस प्रकार ऋतुओं और महीनों का निर्माण करता है ॥५॥