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ग्रावा॑णो॒ न सू॒रय॒: सिन्धु॑मातर आदर्दि॒रासो॒ अद्र॑यो॒ न वि॒श्वहा॑ । शि॒शूला॒ न क्री॒ळय॑: सुमा॒तरो॑ महाग्रा॒मो न याम॑न्नु॒त त्वि॒षा ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

grāvāṇo na sūrayaḥ sindhumātara ādardirāso adrayo na viśvahā | śiśūlā na krīḻayaḥ sumātaro mahāgrāmo na yāmann uta tviṣā ||

पद पाठ

ग्रावा॑णः । न । सू॒रयः॑ । सिन्धु॑ऽमातरः । आ॒ऽद॒र्दि॒रासः॑ । अद्र॑यः । न । वि॒श्वहा॑ । शि॒शूलाः॑ । न । क्री॒ळयः॑ । सु॒ऽमा॒तरः॑ । म॒हा॒ऽग्रा॒मः । न । याम॑न् । उ॒त । त्वि॒षा ॥ १०.७८.६

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:78» मन्त्र:6 | अष्टक:8» अध्याय:3» वर्ग:13» मन्त्र:1 | मण्डल:10» अनुवाक:6» मन्त्र:6


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (ग्रावाणः-न) मेघों के समान (सूरयः-सिन्धुमातरः) ज्ञानवृष्टि करनेवाले विद्वान् तथा ज्ञानसिन्धु के निर्माण करनेवाले (आदर्दिरासः) भली-भाँति पाप के विदीर्ण करनेवाले (अद्रयः-न विश्वहा) पाषाणों के समान सदा वर्तमान (शिशूलाः-न) शिशु स्वभाववाले जैसे (क्रीळयः-सुमातरः) ज्ञान का क्रीडारूप से प्रचार करनेवाले, अच्छे निर्माण करनेवाले (महाग्रामः-न) महासमूह जैसे (त्विषा) दीप्ति से (यामन्-उत) यात्रा में वर्तमान हैं ॥६॥
भावार्थभाषाः - ज्ञानसमूह को रखनेवाले, जनता में उस की वृष्टि करनेवाले, पापों को सदा विदीर्ण करनेवाले, संसार में मोक्षमार्ग की यात्रा करनेवाले विद्वान् धन्य हैं, उन की संगति करनी चाहिए ॥६॥
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (ग्रावाणः-न सूरयः सिन्धुमातरः) मेघा इव ज्ञानवृष्टिकरा विद्वांसो ज्ञानसिन्धुनिर्मातारः (आदर्दिरासः-अद्रयः-न विश्वहा) समन्तात् पापविदारकाः पाषाणा इव सदावर्तमानाः (शिशूलाः-न क्रीळयः सुमातरः) शिशुस्वभावा ज्ञानस्य क्रीडारूपेण प्रचारकाः सुनिर्मातारः (महाग्रामः-न त्विषा-यामन्-उत) महासमूहः तथा दीप्त्या यात्रायां वर्तमानाः सन्ति ॥६॥