पदार्थान्वयभाषाः - (देव) हे परम इष्टदेव परमात्मन् ! (दिवि देवान् स्वयं यजस्व) द्युलोक में वर्तमान सूर्यादि को तू स्वयं सङ्गति कर सङ्गत करता है-सम्प्रेरित करता है (अप्रचेताः-पाकः-ते किं कृण्वत्) अप्रकृष्ट ज्ञानवाला-अल्पयज्ञ तुझ से ज्ञान पाकर पक्का बननेवाला जीवात्मा तेरी क्या सहायता कर सकता है ? कुछ भी नहीं कर सकता, यद्यपि जीवात्मा तेरे जैसा नित्य, चेतन और सृष्टि के देवों-सूर्य आदि से पूर्व वर्तमान होता है (देव) हे उपास्यदेव परमात्मन् ! (यथा-ऋतुभिः-देवान्-अयजः) तू जैसे उस उसके कालों से सूर्यादि देवों को स्व-स्व दिव्यगुणों से संसृष्ट करता है, (एव) इसी प्रकार (सुजात तन्वं यजस्व) हे सुप्रसिद्ध पमात्मन् ! अपने अङ्गरूप मुझ आत्मा को गुणों से संसृष्ट कर ॥६॥
भावार्थभाषाः - परमात्मा ने आकाश के सूर्य आदि पदार्थों को उन-उन गुणों से युक्त उन-उन के समयानुसार रचा। यद्यपि जीवात्मा उनके रचने से पूर्व वर्त्तमान रहता है, परन्तु वह अल्पज्ञ-अल्पशक्ति होने से उनके रचने में उसका सहायक नहीं बन सकता, अपितु परमात्मा अपनी कृपा से ज्ञान दर्शन देकर जीवात्मा को गुणवान् और कर्म करने में समर्थ बनाता है ॥६॥