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सम॒ज्र्या॑ पर्व॒त्या॒३॒॑ वसू॑नि॒ दासा॑ वृ॒त्राण्यार्या॑ जिगेथ । शूर॑ इव धृ॒ष्णुश्च्यव॑नो॒ जना॑नां॒ त्वम॑ग्ने पृतना॒यूँर॒भि ष्या॑: ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sam ajryā parvatyā vasūni dāsā vṛtrāṇy āryā jigetha | śūra iva dhṛṣṇuś cyavano janānāṁ tvam agne pṛtanāyūm̐r abhi ṣyāḥ ||

पद पाठ

सम् । अ॒ज्र्या॑ । प॒र्व॒त्या॑ । वसू॑नि । दासा॑ । वृ॒त्राणि॑ । आर्या॑ । जि॒गे॒थ॒ । शूरः॑ऽइव । घृ॒ष्णुः । च्यव॑नः । जना॑नाम् । त्वम् । अ॒ग्ने॒ । पृ॒त॒ना॒ऽयून् । अ॒भि । स्याः॒ ॥ १०.६९.६

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:69» मन्त्र:6 | अष्टक:8» अध्याय:2» वर्ग:19» मन्त्र:6 | मण्डल:10» अनुवाक:6» मन्त्र:6


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (अग्ने-अज्र्या) हे अग्रणायक राजन् ! तू गतिशील नदी समुद्रों में होनेवाले (पर्वत्या) पर्वतों में होनेवाले (वसूनि) धनों को (दासा) दासों-सेवकों के लिए (आर्या) आर्यों स्वामियों के लिए किए हुए (वृत्राणि) पापों को (सं जिगेथ) सम्यक् अधिकार में कर (शूरः-इव धृष्णुः) पराक्रमी के समान धर्षणशील (जनानां च्यवनः) तू जनों का अपने-अपने विषय में प्रेरित करने के स्वभाववाला (पृतनायून्-अभि-स्यात्) विरोधियों को स्वाधीन करने में समर्थ है ॥६॥
भावार्थभाषाः - राजा को चाहिए, नदी समुद्र पर्वतों से धन अर्थात् विविध अन्नोत्पत्ति, रत्नप्राप्ति तथा पर्वतीय पदार्थों को प्राप्त कर संग्रह करे। राष्ट्र में सेवक और स्वामी के सम्बन्ध को अच्छा बनाने का प्रयत्न करे। एक दूसरे के प्रति किये अपराधों को नियन्त्रित करे। प्रत्येक जन अथवा वर्ग को अपने-अपने कार्य में प्रेरित करे। विरोधियों को स्वाधीन रखे ॥६॥
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (अग्ने-अज्र्या) हे अग्रणायक राजन् ! त्वम्, अजन्ति प्रवहन्ति ये नदीसमुद्रास्तत्र भवानि (पर्वत्या) पर्वतेषु भवानि (वसूनि) यानि धनानि खलु (दासा) दासेभ्यः सेवकेभ्यः कृतानि (आर्या) आर्येभ्यः स्वामिभ्यः कृतानि (वृत्राणि) पापानि कृतानि (सं जिगेथ) सम्यगधिकुरु (शूरः-इव धृष्णुः) पराक्रमीव धर्षणशीलः (जनानां च्यवनः) जनानां च्यवनः-स्वस्वविषयं प्रति प्रापणस्वभावः (पृतनायून्-अभि-स्यात्) विरोधिनः स्वाधीने कर्त्तुं समर्थोऽसि ॥६॥