पदार्थान्वयभाषाः - (अग्ने) हे अग्रणायक परमात्मन् ! (वध्र्यश्वः) नियन्त्रित इन्द्रियोंवाला अथवा चर्मबन्धनी में अश्व की भाँति देहबन्धनी-वासना में बँधा मैं जीवात्मा (यं त्वा) जिस तुझ को (पूर्वम्-ईळितः) पूर्वजन्म में स्तुति में ला चुका हूँ (समीधे) इस जन्म में भी अपने में सम्यक् प्रकाशित करता हूँ (सः-इदं जुषस्व) वह तू मेरी स्तुति को स्वीकार कर (सः) वह तू (नः) हमारे (स्तिपाः) हृदयगृह का रक्षक अथवा शरीर में ऊपर नीचे स्थित संहत-एक दूसरे से संसक्त जीवनरसों का रक्षक है (उत) और (तनूपाः) बाह्यदेह का भी पालक है (अस्मे) हमारे लिए (ते-इदम्) तेरा यह (यद्-दात्रम्) जो दातव्य है, (रक्षस्व) उसकी रक्षा कर ॥४॥
भावार्थभाषाः - जीवात्मा की आन्तरिक अनुभूति है-वह अपने देह और वासना के बन्धन में समझता हुआ स्मरण करता है कि परमात्मा की स्तुति पूर्वजन्म में भी करता रहा, इस जन्म में भी करता हूँ बन्धन से छूटने के लिए। परमात्मा आन्तरिक भावनाओं और मन आदि उपकरणों का रक्षक है तथा बाहरी रस-रक्त आदि धातुओं तथा शरीर का भी रक्षक है। अपने उत्थान के लिए उसकी स्तुति प्रार्थना उपासना करनी चाहिए ॥४॥