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सं गोभि॑राङ्गिर॒सो नक्ष॑माणो॒ भग॑ इ॒वेद॑र्य॒मणं॑ निनाय । जने॑ मि॒त्रो न दम्प॑ती अनक्ति॒ बृह॑स्पते वा॒जया॒शूँरि॑वा॒जौ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

saṁ gobhir āṅgiraso nakṣamāṇo bhaga ived aryamaṇaṁ nināya | jane mitro na dampatī anakti bṛhaspate vājayāśūm̐r ivājau ||

पद पाठ

सम् । गोभिः॑ । आ॒ङ्गि॒र॒सः । नक्ष॑माणः । भगः॑ऽइव । इत् । अ॒र्य॒मण॑म् । नि॒ना॒य॒ । जने॑ । मि॒त्रः । न । दम्प॑ती॒ इति॒ दम्ऽप॑ती । अ॒न॒क्ति॒ । बृह॑स्पते । वा॒जय॑ । आ॒शून्ऽइ॑व । आ॒जौ ॥ १०.६८.२

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:68» मन्त्र:2 | अष्टक:8» अध्याय:2» वर्ग:17» मन्त्र:2 | मण्डल:10» अनुवाक:5» मन्त्र:2


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (आङ्गिरसः) विद्वान् का शिष्य (भग-इव नक्षमाणः) धनवान् जैसे धन में रमण करता हुआ अर्थात् व्याप्त हुआ होता है, ऐसे विद्या में रमण करता हुआ-व्याप्त हुआ (गोभिः-अर्यमणं स निनाय) स्तुतिवाणियों के द्वारा जगत् के स्वामी परमात्मा को अपने में लेता है-आकर्षित करता है (मित्रः-न जने) जैसे पारिवारिक जन समुदाय में पुरोहित (दम्पती-अनक्ति) नववधु और वरों को प्रेरित करता है (बृहस्पते आशून्-इव आजौ वाजय) हे बड़े ब्रह्माण्ड के स्वामी परमात्मन् ! जैसे मार्ग में व्यापनशील घोड़ों को संग्राम में प्रेरित करता है, वैसे ही विद्या में व्याप्त स्तोताओं को प्राप्तव्य मोक्ष में प्रेरित कर ॥२॥
भावार्थभाषाः - जैसे कोई धनवान् धन में रमण करता हुआ होता है, ऐसे ही विद्वान् का शिष्य विद्या में रमण करता हुआ होता है और वह अपनी स्तुतियों द्वारा जगत् के स्वामी परमात्मा को भी अपने अन्दर साक्षात् करता है। उस ऐसे सच्चे पात्र को परमात्मा मोक्ष में प्रेरित करता है ॥२॥
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (आङ्गिरसः) अङ्गिरसो विदुषो शिष्यः ‘आङ्गिरसा विदुषा कृतो विद्वान्’ [यजु० १७।७३] (भग-इव नक्षमाणः) धनवान् धने रममाण इव विद्यायां व्याप्तः सन् “नक्षति व्याप्तिकर्मा” [निघ० २।१८] (गोभिः-अर्यमणं स निनाय) स्तुतिवाग्भिर्जगतः स्वामिनं परमात्मानं स्वस्मिन् सम्यग्नयति-आकर्षति संयोजयति (मित्रः-न जने दम्पती-अनक्ति) यथा पारिवारिकजनसमुदाये नववधूवरौ प्रेरयिता विद्वान् संस्कारकर्त्ता संयुनक्ति “अनक्तु संयुनक्तु” [यजु० ३७।११ दयानन्दः] (बृहस्पते-आशून्-इव-आजौ वाजय) हे बृहतो ब्रह्माण्डस्य स्वामिन् ! यथा मार्गे व्यापनशीलानश्वान् सङ्ग्रामे वाजयति प्रेरयति तद्वद्विद्यायां व्याप्तान् स्तोतॄन् प्राप्तव्ये मोक्षे प्रेरय “वज् गतौ” [भ्वादिः] ॥२॥