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यथा॑ यु॒गं व॑र॒त्रया॒ नह्य॑न्ति ध॒रुणा॑य॒ कम् । ए॒वा दा॑धार ते॒ मनो॑ जी॒वात॑वे॒ न मृ॒त्यवेऽथो॑ अरि॒ष्टता॑तये ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yathā yugaṁ varatrayā nahyanti dharuṇāya kam | evā dādhāra te mano jīvātave na mṛtyave tho ariṣṭatātaye ||

पद पाठ

यथा॑ । यु॒गम् । व॒र॒त्रया॑ । नह्य॑न्ति । ध॒रुणा॑य । कम् । ए॒व । दा॒धा॒र॒ । ते॒ । मनः॑ । जी॒वात॑वे । न । मृ॒त्यवे॑ । अथो॒ इति॑ । अ॒रि॒ष्टऽता॑तये ॥ १०.६०.८

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:60» मन्त्र:8 | अष्टक:8» अध्याय:1» वर्ग:25» मन्त्र:2 | मण्डल:10» अनुवाक:4» मन्त्र:8


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (यथा वरत्रया युगम्) जैसे चमड़े की रस्सी-फीते से वृषभ आदि को (धरुणाय नह्यन्ति कम्) धारकदण्ड-गाड़ी के प्रतिष्ठा भाग-जूवे के लिए सुख से बाँधते हैं (एव) इसी प्रकार (ते मनः-जीवातवे दाधार) हे कुमार, तेरे मन को-मनोभाव-संकल्प को जीवन के लिए चिकित्सक जोड़ता है-बाँधता है (न मृत्यवे) मृत्यु के लिए नहीं (अथ-उ-अरिष्टतातये) अपितु रोगरहित होने के लिए-स्वस्थ होने के लिए ॥८॥
भावार्थभाषाः - रोगी कुमार को चिकित्सक ऐसे धैर्य बँधाये और ऐसा उपचार करे, जैसे चर्मरस्सी से बैल को जूवे में जोड़ा जाता है, ऐसे उसके मन को रोग के चिन्तन से हटाकर आश्वासन और मनोरञ्जन के द्वारा स्वस्थता की ओर लगा दिया जाये ॥८॥
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (यथा वरत्रया युगं धरुणाय नह्यन्ति कम्) यथा हि चर्मरज्ज्वा वृषभादिकं धारकदण्डाय प्रतिष्ठारूपाय “प्रतिष्ठा वै धरुणम्” [श० ७।४।२।५] बध्नन्ति (एव) एवम् (ते मनः-जीवातवे दाधार) तव मनः-मनोभावं चिकित्सको जीवनाय धारयति (न मृत्यवे) न तु मृत्यवे (अथ-उ-अरिष्टतातये) अथापि कल्याणाय “शिवशमरिष्टस्य करे” [अष्टा० ४।४।१४३] तातिल् प्रत्ययः ॥८॥