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इन्द्र॑ क्ष॒त्रास॑मातिषु॒ रथ॑प्रोष्ठेषु धारय । दि॒वी॑व॒ सूर्यं॑ दृ॒शे ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

indra kṣatrāsamātiṣu rathaproṣṭheṣu dhāraya | divīva sūryaṁ dṛśe ||

पद पाठ

इन्द्र॑ । क्ष॒त्रा । अस॑मातिषु । रथ॑ऽप्रोष्ठेषु । धा॒र॒य॒ । दि॒विऽइ॑व । सूर्य॑म् । दृ॒शे ॥ १०.६०.५

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:60» मन्त्र:5 | अष्टक:8» अध्याय:1» वर्ग:24» मन्त्र:5 | मण्डल:10» अनुवाक:4» मन्त्र:5


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे शासक ! (रथप्रोष्ठेषु-असमातिषु) रथप्रोष्ठ-रथ के संचालन में प्रोष्ठ-प्रौढ़-कुशल, असमान गति प्रवृत्तिवाले अधिकारी में (क्षत्रा धारय) बलों को समर्पित कर (दिवि-इव सूर्यं दृशे) जैसे आकाश में सूर्य को-जगत् को प्रकाशित करने के लिए परमात्मा धारण करता है ॥५॥
भावार्थभाषाः - महारथी युद्धकुशल के अधीन अपने विविध सैन्य बलों को समर्पित करे-सौंपे, जैसे परमात्मा ने आकाश के अन्दर सब जगत् को प्रकाशित करने के लिए धारण कर रखा है ॥५॥
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे शासक ! (रथप्रोष्ठेषु असमातिषु) रथयानस्य चालने प्रोष्ठाः-प्रौढाः, ये ते रथप्रोष्ठाः “प्रोष्ठे प्रौढे” [ऋ० ७।५५।८ दयानन्दः] ‘आदरार्थं बहुवचनम्’ रथचालनप्रोढे-असुमातौ-असमानगतिप्रवृत्तिके-अधिकारिणि (क्षत्रा धारय) बलानि स्थापय (दिवि-इव सूर्यं दृशे) यथा ह्याकाशे सूर्यं जगद्द्रष्टुं परमात्मा धारयति ॥५॥