पदार्थान्वयभाषाः - (विधुं दद्राणम्) विधमनशील अर्थात् चञ्चल, दमनशील (बहूनाम्) बहुत इन्द्रियों के मध्य में (युवानं सन्तम्) मिलने-मिलानेवाले अन्तःकरण को (समने) सम्यक् आनन्द से सुषुप्तिकाल में (पलितः-जगार) फल भोगनेवाला आत्मा निगलता है-निरोध से अपने अन्दर ले लेता है, (सः-अद्य ममार ह्यः समान) वह आत्मा शयनकाल में मरे जैसा हो जाता है, जागने पर फिर वैसा ही। अथवा मर जाता है-देह त्याग देता है, तो अगले जन्म में फिर वैसा ही देहधारी हो जाता है, इस प्रकार दोनों अवस्थाओं में प्रेरित करनेवाला परमात्मा है (महित्वा) उस परमात्मदेव के इस शिल्प को-कृत्य को देख जिसकी (महित्वा) महिमा से ये सब होता है ॥५॥
भावार्थभाषाः - आत्मा जब सोता है, तो अन्तःकरण को अपने अन्दर ले लेता है, जिससे कि जागृत अवस्था में जागृत के अर्थात् सांसारिक व्यवहार करता है। जागने पर वैसा ही हो जाता है। उसी प्रकार मरने के पीछे फिर देह को धारण करता है, जन्म लेता है। जागृत-स्वप्न या जन्म-मृत्यु ईश्वर की व्यवस्था से होते हैं। अन्तःकरण इन्द्रियों में प्रमुख करण है, जो चञ्चल भी है और निरुद्ध भी हो जाता है। निरुद्ध हुआ-हुआ कल्याण का साधन बनता है ॥५॥