पदार्थान्वयभाषाः - (अग्ने) हे अङ्गों के नायक आत्मन् ! (तव प्रयाजाः-च-अनुयाजाः-केवले) तेरे प्रकृष्ट भोक्तव्य अन्नादि पदार्थ तथा तदनुरूप पेय पदार्थ मोक्षसाधक होवें (हविषः-भागाः-ऊर्जस्वन्तः सन्तु) ग्रहण करने योग्य विषय के अनुभव तेजस्वी हों, भोग में न डूबें (तव अयं सर्वः-यज्ञः-अस्तु) यह तेरा शरीरयज्ञ सब कल्याणसाधक हो, तेरे प्रतिकूल न जाये (चतस्रः प्रदिशः-तुभ्यं नमन्ताम्) चारों दिशाओं में रहनेवाली प्रजाएँ तेरा सत्कार करें। एवं (अग्ने) हे विद्युत् अग्ने ! (तव प्रयाजाः-च-अनुयाजाः-केवले) तेरे प्रकृष्टसंगमनीय-धनात्मक तारें तथा अनुकृष्टसंगमनीय ऋणात्मक तारें अपने-अपने बन्धन में अलग-अलग हों (हविषः-भागाः-ऊर्जस्वन्तः सन्तु) ग्राह्य वज्र के अंश तेजस्वी हों (अयं सर्वः-यज्ञः-तव अस्तु) यह सारा यन्त्रसमूह तेरा हो, तू इसे चला (चतस्रः प्रदिशः-तुभ्यं नमन्ताम्) चारों दिशाओं में होनेवाली कलाएँ तेरे आश्रित हों ॥९॥
भावार्थभाषाः - मनुष्य के समस्त खान और पान और विषयभोग संसार में फँसनेवाले न हों, किन्तु सच्चे कल्याण और मोक्ष के साधन बनें। समस्त दिशाओं की प्रजाएँ तेरी प्रतिष्ठा करें, ऐसा अपने को बना। एवं विद्युत् के धनात्मक और ऋणात्मक तार अपने-अपने स्थान बन्धन में अलग-अलग हों, जो सारी यन्त्र की कलाओं को स्वाधीन करके चला सकें ॥९॥