पदार्थान्वयभाषाः - (अग्ने) हे अङ्गों के नेता आत्मन् ! (तमसि क्षेषि) तू अज्ञानान्धकार में निवास करता है (मनुः-देवयुः-यज्ञकामः-अरङ्कृत्य-एहि) मननशील हो इन्द्रियों की ओर जानेवाला अध्यात्मयज्ञ को चाहता हुआ अपने को समर्थ करके आ, मृत्यु से मत डर (देवयानान् पथः सुगान् कृणुहि) शरीर को प्राप्त करके इन्द्रियमार्गों को शिवसंकल्पवाले बना (सुमनस्यमानः-हव्यानि वह) सुप्रसन्न हुआ परमात्मा के प्रति स्तुति, प्रार्थना, उपासनाओं को प्रेरित कर। एवम् (अग्ने) हे यन्त्र के अग्रणेता विद्युत् अग्नि ! (तमसि क्षेषि) अज्ञात प्रसङ्ग में रहती है (मनुः-देवयुः-यज्ञकामः-अरङ्कृत्य-एहि) तू मननीय, वैज्ञानिकों के प्रति जानेवाला कलायज्ञ में कमनीय उनके कार्य में समर्थ क्रियायन्त्र में प्राप्त हो (देवयानान्-पथः सुगान् कृणुहि) वैज्ञानिकों के निर्णीत मार्गों को अच्छे गमन योग्य कर (सुमनस्यमानः-हव्यानि वह) सुविकसित हुआ प्राप्तव्य वस्तुओं को प्राप्त करा ॥५॥
भावार्थभाषाः - आत्मा समस्त अङ्गों का नेता है, इन्द्रियों के विषयों में पड़कर मृत्यु से भय करता है, परन्तु शिवसंकल्प बना कर आत्मबल प्राप्त कर और परमात्मा की स्तुति, प्रार्थना, उपासना करता हुआ मृत्यु से भय का अवसर नहीं है। एवं विद्युदग्नि यन्त्र का चालक बने बिना प्रयोग के अन्धेरे में पड़ी जैसी है, वैज्ञानिकों द्वारा यन्त्र में प्रयुक्त होकर बलवान् बनती है, यन्त्र द्वारा विविध लाभ पहुँचाता हुआ सफल तथा स्थिर रहता है ॥५॥