पदार्थान्वयभाषाः - (जातवेदः-अग्ने) हे उत्पन्न शरीर के साथ जानने योग्य आत्मा, या उत्पन्न होते ही ज्ञान में आने योग्य विद्युत् ! (बहुधा-अप्सु-ओषधीषु-प्रविष्टं त्वा-ऐच्छाम) बहुत प्रकार से मनुष्य पशु पक्षी रूप से प्राणों में, उष्णत्व धारण करनेवाली नाड़ियों में प्रविष्ट हुए को चाहते हैं तथा जलों में काष्ठादि पदार्थों में प्रविष्ट हुए को खोज करके चाहते हैं (चित्रभानो तं त्वा यमः-अचिकेत्) हे दर्शनीय तेजवाले आत्मन् ! या विद्युत् ! तुझ को यमनकर्ता परमात्मा या वैज्ञानिक जानता है (दशान्तरुष्यात्-अतिरोचमानम्) दश इन्द्रियों, प्राणों के अन्दर उष्णता से तथा चेष्टा से-क्रिया व्यवहार से या दशस्थानों में-पृथिवी, अन्तरिक्ष, द्युलोक, अग्नि, विद्युत्, सूर्य, जल, ओषधि, वनस्पति और प्राणिशरीर में बसने से जानते हैं ॥३॥
भावार्थभाषाः - आत्मा शरीर के उत्पन्न होने के साथ ही जाना जाता है, वह मनुष्य, पशु, पक्षी प्राणियों में उष्णता धारण करनेवाली नाड़ियों में चेष्टाओं के होने से विद्यमान है। परमात्मा आत्मा का नियामक है। भिन्न-भिन्न शरीरों में जाने का इसका निमित्त बनाता है। एवं विद्युत् प्रकट होते ही जाना जाता है। वह जलों में काष्ठादि में विद्यमान रहता है। इसे वैज्ञानिक लोग जानते हैं ॥३॥