पदार्थान्वयभाषाः - (त्रितः) मेधा द्वारा दुःख से अत्यन्त पार हुआ अथवा स्तुति-प्रार्थना-उपासनाओं से सम्पन्न या स्तुति-प्रार्थना-उपासना में वर्तमान आत्मा (वैभुवसः) विभु होता हुआ जो सबमें बसता है, उस परमात्मा का पुत्र या उपासक आत्मा (इमम्) इस परमात्मा को (इच्छन्) देखने-प्राप्त करने को चाहता हुआ (अघ्न्यायाः-मूर्धनि भूरि-अविन्दत्) अहन्तव्य वेदवाणी के मूर्धाभूत प्रणव-‘ओ३म्’ में अतिशय से प्राप्त करता है (सः-शेवृधः-जातः) वह परमात्मा सुखवर्द्धक प्रसिद्ध होता है (हर्म्येषु नाभिः) सुखपूर्ण घरों में-सुखस्थानों में केन्द्ररूप है (रोचनस्य युवा-आभवति) ज्ञानप्रकाशक-स्वरूप का सङ्गतिकर्ता अधिकारी बन जाता है ॥३॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य मेधावी और स्तुति, प्रार्थना, उपासना से सम्पन्न होता है, वह सर्वत्र व्यापक परमात्मा के प्रिय पुत्र के समान उपासक होता है। वह वाणी के मूर्धा स्वरूप ‘ओ३म्’ नाम के जप से सुखस्वरूप परमात्मा का साक्षात् करता है, जो सब सुखों में ऊँचा श्रेष्ठ सुख है ॥३॥