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गम॑न्न॒स्मे वसू॒न्या हि शंसि॑षं स्वा॒शिषं॒ भर॒मा या॑हि सो॒मिन॑: । त्वमी॑शिषे॒ सास्मिन्ना स॑त्सि ब॒र्हिष्य॑नाधृ॒ष्या तव॒ पात्रा॑णि॒ धर्म॑णा ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

gamann asme vasūny ā hi śaṁsiṣaṁ svāśiṣam bharam ā yāhi sominaḥ | tvam īśiṣe sāsminn ā satsi barhiṣy anādhṛṣyā tava pātrāṇi dharmaṇā ||

पद पाठ

गम॑न् । अ॒स्मे इति॑ । वसू॑नि । आ । हि । शंसि॑षम् । सु॒ऽआ॒शिष॑म् । भर॑म् । आ । या॒हि॒ । सो॒मिनः॑ । त्वम् । ई॒शि॒षे॒ । सः । अ॒स्मिन् । आ । स॒त्सि॒ । ब॒र्हिषि॑ । अ॒ना॒धृ॒ष्या । तव॑ । पात्रा॑णि । धर्म॑णा ॥ १०.४४.५

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:44» मन्त्र:5 | अष्टक:7» अध्याय:8» वर्ग:26» मन्त्र:5 | मण्डल:10» अनुवाक:4» मन्त्र:5


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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (अस्मे वसूनि हि-आगमन्) हमारे लिए वासयोग्य धन अवश्य प्राप्त हो, अतः (सु आशिषं शंसिषम्) शोभन प्रार्थनावचनों से प्रशंसा करता हूँ (सोमिनः-भरम्-आ याहि) उपासना-रससमर्पी अथवा उपहार समर्पण करनेवाले जिसमें अध्यात्मभाव को भरते हैं, उस हृदय में प्राप्त हो अथवा ऐश्वर्य-धनसम्पत्ति से भरपूर राष्ट्रपद पर प्राप्त हो (सः-अस्मिन् बर्हिषि-आ सत्सि) वह तू इस हृदयाकाश-हृदयासन में या राजपद पर विराजमान हो (तव पात्राणि-अनाधृष्या) हम तेरे श्रद्धावान्, पात्रभूत, स्तोता, प्रशंसक या प्रजाजन तेरे सहारे में स्थित हुए, किसी से भी पीड़ित या विचलित नहीं किये जा सकते हैं ॥५॥
भावार्थभाषाः - परमात्मा की उपासना करनेवालों के समीप आवश्यक वस्तुएँ प्राप्त हो जाती हैं और परमात्मा भी उनके हृदय में साक्षात् हो जाता है। कोई बाधक कामादि दोष परमात्मा से उन्हें विचलित नहीं कर सकता है एवं प्रजाजन जब राजा के शासन के अनुकूल चलते हैं, तो सुखसाधन वस्तुएँ उन्हें सुगमतया प्राप्त हो जाती हैं। उनके मध्य में राजा राजपद पर विराजमान होकर उनकी पूरी रक्षा करता है। राजा के रक्षण से उन्हें कोई हटा नहीं सकता ॥५॥
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ब्रह्ममुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (अस्मे वसूनि हि-आगमन्) अस्मभ्यं वासयोग्यानि धनान्य- वश्यमागच्छन्तु-प्राप्नुवन्तु (सु-आशिषं शंसिषम्) शोभनं प्रार्थनावचनं प्रशंसामि (सोमिनः भरम्-आयाहि) उपासनारस-समर्पिणः, उपहारसमपिर्णो वा अध्यात्मभावं भरन्ति यस्मिन्, तस्मिन् हृदये प्राप्नुहि, यद्वा-ऐश्वर्यभरे राष्ट्रपदे प्राप्नुहि (सः-अस्मिन् बर्हिषि-आसत्सि) स त्वमस्मिन् हृदयावकाशे-हृदयासने राजपदे वा विराजस्व (तव पात्राणि-अनाधृष्या) तव वयं श्रद्धावन्तः पात्रभूताः स्तोतारः प्रशंसकाः प्रजाजना वा त्वयि स्थिताः केनापि पीडयितुं विचालयितुं न शक्याः ॥५॥