पदार्थान्वयभाषाः - (नृपते राजन्) हे मुमुक्षुजनों के पालक ! सर्वत्र राजमान परमात्मन् ! या प्रजाजनों के पालक राजन् ! तथा गतिशक्तियों के पालक धारक विद्युत् पदार्थ ! कलायन्त्र में प्रकाशमान ! (ते) तेरा (रथः) रमणयोग्य मोक्ष या गमनशील यान अथवा गतिपिञ्जर (सुष्ठामा) सुखस्थान, सुरक्षितस्थितिमान्, सुव्यवस्थित (हरी सुयमा) दुःखापहरण और सुखाहरणकर्ता, दया और प्रसाद, सेनाविभाग और सभाविभाग, तथा शुष्क और आर्द्र धाराएँ, सुनियम से प्रवर्तमान (गभस्तौ वज्रः-मिम्यक्ष) बाहु में-संसारवहनबल में, या भुजा में तथा नियन्त्रण में ओज या शस्त्र अथवा वर्जनबल प्राप्त हो (सुपथा-शीभम्-अर्वाङ्-आ याहि) सुमार्ग से-ध्यान से, गतिमार्ग से, तारमार्ग के द्वारा शीघ्र हमारी ओर इस घर में प्राप्त हो (पपुषः-ते वृष्ण्यानि वर्धाम) उपासनारसपानकर्ता के, सोम्यानन्द-रसपानकर्ता के, द्रवपदार्थपानकर्ता के तेरे बलों को अपने में बढ़ावें ॥२॥
भावार्थभाषाः - मुमुक्षुओं का पालक परमात्मा अपनी कृपा और प्रसाद से उपासकों के अन्दर अध्यात्ममार्ग द्वारा प्राप्त होता है। एवं प्रजा का पालक राजा अपने सेनाविभाग और सभाविभाग के द्वारा प्रजाओं का हित चाहता हुआ यानादि द्वारा उनमें प्राप्त होता है। इसी प्रकार गतिशक्तियों का रक्षक अपनी दो धाराओं के द्वारा किसी कलायन्त्र में उपयुक्त और प्रयुक्त होता है ॥२॥