पदार्थान्वयभाषाः - (यः इन्द्रः) जो ऐश्वर्यवान् परमात्मा (जनेषु मित्रः-न) उपासक जनों में मित्र-स्नेही के समान (असामि यशः-आ चक्रे) अनु-समाप्त-अर्थात् परिपूर्ण यश और अन्न तथा धन को भलीभाँति प्राप्त कराता है (इह) यहाँ जनसमाज में (श्रुतः) प्रसिद्ध (वज्री) ओजस्वी (ऋचीषमः) मन्त्रों का दर्शानेवाला अतएव स्तुति करनेवाले ऋषियों के लिए यश प्रदान करता है अथवा स्तुति करनेवालों का मान करता है, उसको उत्कर्ष की ओर ले जाता है, अन्न का दान करता है या स्तुति के समान स्तुति के अनुरूप हुआ उसी के अनुरूप फल प्रदान करता है। वह धन देनेवाला भी है, ऐसा वह परमात्मा (अद्य-अस्मे स्तवे) इस काल में हम उपासकों के द्वारा स्तुत किया जाता है ॥२॥
भावार्थभाषाः - परमात्मा मनुष्यों में मित्र के समान पूर्णरूप से यश अन्न और धन प्राप्त कराता है, मन्त्रों का परिज्ञान कराता है, स्तोताओं का मान करता है और स्तुति के अनुरूप फल देता है। ऐसा वह परमात्मा हमारे लिए उपासनीय है ॥२॥